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सम्पादकीय
थे। तीन वर्ष तक क्रमिक अध्ययन का क्रम चला। उन्होंने संस्कृत भाषा को हस्तगत करना प्रारंभ किया। धीरेधीरे अन्यान्य कार्यों के प्रति उनकी रुचि बढ़ी, दक्षता तो पहले से ही थी, वह वृद्धिंगत हुई और वे क्रमिक शिक्षाक्रम को छोड़कर यदाकदा संस्कृत टीका और संस्कृत काव्यों का वाचन कर अपना ज्ञान बढ़ाते रहे। आज वे मेरे संपूर्ण कार्य के पर्यवेक्षक, यत्र-तत्र परामर्शक बने हुए हैं।
अभी कुछ वर्षों पूर्व मैंने व्यवहार भाष्य का अनुवाद किया। उसकी पांडुलिपि तैयार करना, प्रूफ देखना आदि सारा कार्य उन्होंने संपन्न कर जलगांव में महोत्सव के अवसर पर पुस्तकरूप में उपहृत किया।
तत्पश्चात् वे मेरे साथ बृहत्कल्पभाष्य में लग गए। मैं उनको भाष्य की टीका का वाचन कर अर्थ करने के लिए कहता वे अर्थ करते। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ता गया । अर्थ को पकड़ने की उनकी शक्ति बढ़ी और उन्हें यह प्रतीति होने लगी की नाममाला का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है।
आजकल इस ग्रंथ की पांडुलिपि को आद्योपान्त पढ़ने में लगे हुए हैं। सारे परिशिष्टों का परिमार्जन कर रहे हैं। मैं उनकी इस तत्परता के प्रति प्रणत हूं।
कथा परिशिष्ट को साध्वीश्री दर्शनविभाणी ने तैयार किया है। ग्रंथगत प्राकृत तथा संस्कृत कथाओं का हिन्दी भाषा में अनुवाद कर ग्रंथ को सुबोध बनाया है। इसमें १५० कथाएं हैं। कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं में वे कथाएं हैं और वृत्तिकार ने उन्हें विस्तार से समझाया है मैं समझता हूं साध्वीजी का यह प्रथम प्रयास सफल रहा है। मैं उनके प्रति आभारी हूं। उनमें प्राकृत और संस्कृत भाषा को पढ़ने-समझने की शक्ति बढ़े, यही मंगलकामना है।
नोखामंडी में लगभग एक माह तक रहे। वहां के डॉ. प्रेमसुखजी मरोठी इस ग्रंथ के कम्प्यूटराइज्ड कॉपी के लिए प्रयत्नशील रहे और उस प्रयत्न में सफल हुए। उन्होंने इस विशाल ग्रंथ के महत्त्व को समझा और इसके प्रति अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की ।
विहार क्रम में हम संबोधि उपवन में पहुंचे वहां ध्यानयोगी मुनिश्री शुभकरणजी की सन्निध्य में लगभग ४५ दिन रहे ग्रंथ का कार्य आगे बढ़ा और निष्पत्ति तक पहुंच गया।
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मैं किशन जैन को भी नहीं भूल सकता। वे सर्वोत्तम साहित्य संस्थान के कर्ता-धर्ता है और जैन विश्व भारती संस्था के साहित्य विक्रेता है। उन्होंने अपने कम्प्यूटर ऑपरेटर प्रमोद को हमारे पास भेजकर ग्रंथ की पांडुलिपि तैयार कराई। मैं उनके इस सहयोग को विस्मृत नहीं कर सकता।
अन्त में
हमने इस ग्रंथ को दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में संपादकीय, भूमिका तथा पीठिका सहित प्रथम दो उद्देशक हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छट्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट हैं - १. कथा परिशिष्ट २. सूक्त और सुभाषित ३. आयुर्वेद और आरोग्य ४. गाथानुक्रम प्रथम खण्ड का विषयानुक्रम प्रथम खण्ड में, दूसरे का दूसरे में है।
पुनश्च इस ग्रंथ के आकार लेने तक जिस किसी का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है उनके प्रति भी मंगलकामना।
शुभं भवतु, कल्याणमस्तु ।
१ अगस्त २००७
महाप्रत विहार, भुवाणा (उदयपुर)
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मुनि दुलहराज
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