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रियाए तिसलाए खत्तित्राणीए वासिट्ठसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरा वित्तए । जेवियां से तिसलाए खत्तियाणीए गन्भे तंपियणं देवादाए माहणीए जालंधरगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहारावित्तएत्तिकट्टु एवं संपेes, एवं संपेहित्ता हरिऐगमेसिंग्गाणीयाहिव देवं सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी ॥ २१ ॥
इंद्र विचार करता है कि कोई कर्म भोगना बाकी रहा जिस कारण से तीर्थंकर भी ऐसे नीच कुलमें आते है और महावीर प्रभू भी इसी कारण से ब्राह्मणी की कुंख में आये हैं.
इसलिये इन्द्र आचारानुसार कि जिस समय जो इन्द्र होय वो यदि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव पूर्व संचित कर्मानुसार दरिद्र कुल में उत्पन्न हो तो उनको उसगर्भ में से निकाल कर उच्च कुलों में स्थापन करें अर्थात् नीच कुल में जन्म नहीं होने दे अब मुझे भी यहां से अर्थात् देवानन्दा की कूख से उठाकर क्षत्रियकुंड ग्राम के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला देवी की कूखमें स्थापन करना आवश्यक है. और रानी त्रिशला के गर्भ को देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में रखना ऐसा. विचार कर हरिणगमेषी नामका देवता जो प्यादल सेना का अधिपति है उसे बुलाकर इस प्रकार से कहा.
एवं खलु देवापिया ! न एवं भूयं, न एवं भव्वं, न एवं भविस्सं, जणं अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंत पंतं किवण• दरिद० तुच्छ० भिक्खाग० श्रायासु वा ३ एवं खलु अरिहंता वा चक्क बल० वासुदेवा वा उग्गकुलेसु बा भोग० राइन्न० नाय० खत्तिय० इक्खाग० हरिदंसकुलेसु वा अन्नवरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाईसु वा ३ २२ ॥
१-२ पायताणीया ०.