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(८६ ) च प्राभरणवासं च पत्तवासं च पुष्पवासं व फलवासं च वीयवासं च मल्लवासं च गंधवासं च चुगणवासं च वरणवामंच वसुहारवासं च वासिंसु ॥ १७ ॥
जिस रात्रि में भगवान का जन्म हुवा उस रात्रि को इन्द्र की आज्ञा से कुवर लोक पाल के कहने मे तिर्यजभक देवाने प्रभू के पिता सिद्धार्थ राजा के भवन में हिरण्य, सुवर्ण, हीरा, वस्त्र, आभरण पत्ते, पुप्प, फल वीज माला मुगन्धी.चूर्ण वर्ण ( रंग ) और सुवर्ण मुद्रा इत्यादि उत्तम २ पदार्थों की दृष्टि की (अर्थान् उपयोगी वस्तुओं का ढेर करठिया ).
तएणं से सिद्धत्थे खत्तिए भत्रणवड्वाणमंतरजोइसवेमा. णिएहिं देवेहिं तित्थयाजम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पञ्चूसकाल समयसि नगरगुत्तिए सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी ।। ६८॥
प्रभात के प्रहर में भवन वासी, वैमानिक, इत्यादि देवों का महान्सब हो जाने बाद प्रभू के जन्म होने के शुभ समाचार सिद्धार्थ राजा को मालुम हुवे तब सिद्धार्थ राजा अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने नगर के रक्षक (पुलिस के बड़े अफसर ) को बुलाकर इस प्रकार कहने लगा.
(यहां पर विस्तार पूर्वक ग्रंथान्तर से सिद्धार्थ राजा के किये हुवे महोत्सव का वर्णन किया है ).
प्रभू के जन्म के शुभ समाचार लेकर सिद्धार्थ राजा के पास प्रियंवढा नाम की दासी वधाई देने को गई तब सिद्धार्थ राजा ने प्रमोद से संतुष्ट होकर मुकुट छोड़ अपने सर्व आभूषण पुरस्कार स्वरूप देदिये और उसको आजन्म के लिये दासीपन दूर किया और अनेक महोत्सव करांय. .
- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कुंडपुरे नगरे चारगसोहणं करेह, करिता माणुम्माणवद्धणं करेह, माणुम्भाणवद्धणं करिचा कुंडपुरं नगरं सम्भितरवाहिरियं आसियसम्प्रज्जियोव
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