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गल्लाहिं मित्रमहुरसस्मिरीचाहिं वग्गूहिं अभिनंदमाला भिथुव्वमाणा य एवं व्यासी ॥ १११ ॥ प्रभु का दीक्षा समय |
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दीक्षा के समय प्रभु तैयार हुए वो हेमन्त ऋतु पहिला मास पहला पच मागसीर बढी १० के रोज पूर्व दिशा में छाया जाती थी उस समय तीसरे पहर में प्रमाण युक्त पोरसी होने पर अर्थात् पूणे तीसरे शहर में सुव्रत नामका दिन, विजय मुहूर्त में चन्द्रप्रभा शिविका ( पालखी ) में बैठकर देव नव मनुष्य समृह के साथ चले उस समय शंख बजाने वाले, चक्र आवृत्र धरने वाले, लांगूल (हल जैसा ) शस्त्र धारन करने वाले खंबे उपर आदमी को बैठाने वाले, मुख से मंगल शब्द बोलने वाले विरुदावली बोलने वाले घंटी बजाने वाले और भी अनेक पुरुष आगे और पीछे चलकर जिनकी भक्ति सेवा करते हैं मैंने भगवान् दीवा लेने को जाते हैं लोग भी भक्ति सूचन मधुर वचनों से कहते हैं.
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जय २ नंदा ! जय २ भद्दा !, भदं ते खत्तियवरवसहा ! भग्गेहिं नाणदंसणचरितेहिं, अजियाई जिलाहि इंदियाई, जिथं च पालेहिं समणधम्मं, जियविग्घोविय व साहि तं देव ! सिद्धिम, निहांहि रागद्दासमल्ले तवेणं धिधणिचवडकच्चे, मद्दाहि टुकम्मसत्तू झालेलं उत्तमेणं सुकेणं, थप्प मत्तो हराहि चाराहणपडागं च वीर ! तेलुक्करंगमज्झे, पावय वितिमिरमरणुत्तरं केवलवरनाएं, गच्छ य मुक्खं परं पयं जि
वरोव मग्गेणं अकुडिलेणं हंता परीसहचम्, जय २ खत्तियवरवसहा ! बहु दिवसाई बहु पक्खाई बहूई मासाई बहूई उकई बहूई चयणाई वहुई संवच्छ गई, अभीए परीस होवसग्गाणं, खंतिखमे, भयभेरवाणं, धम्मे ते विग्धं भवर " ति कहु जयजयमत्रं पउंजंति ॥ ११२ ॥