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पुत्र रत्न का जन्म महोत्सव करने को आयी हूं आप बग्ना नहीं ऐसा कहकर माना को अवसर्पिनी निंद्रा दी और प्रभु का वि प्र के बदले म की माता के पास रखा और इन्द्र ने अपने पांच रूप बनाकर एकरूप से प्रभु को हाथ में लिये दो रूप से चंवर बीजने लगा, एकरूप से छत्र घरा और एक रूप से बच हाथ में लेकर आगे चलने लगा और परिवार के साथ मेरु पर्वत
पर आया.
दक्षिण भाग में पांडुक, वन में पांडुक बला शिला पाम गया, थोर शिला पर आसन लगाकर बैठा और गोद में प्रभु को रखा पीछे २० भवनपनि ३२ व्यंतर, १० वैमानिक और दो सूर्य चंद्र मिलकर ६४ इन्द्र थे आठ जाति के कला सुवर्ण चांदी, सुवर्ण रत्न, चांदी रत्न, सुवर्ण चांदी रत्न और मिट्टी के प्रत्येक १००८ एकहजार आठ की संख्या में लाकर रखे, सिवाय दर्पण, रत्न करंडक, सुप्रतिष्ठक थाल, चंगेरी वगैरह पूजा के उपकरण १००८ इकट्ठे किये और मागथ प्रभास वगैरह नीयों की मिट्टी और गंगादि नदियों का जल, पद्मादि सरोवर का और क्षुद्र हिमवंत, वैताढ्य विजय वक्षस्कार पर्वनों से कमल सरसों, फूल वगैरह पूजा की सामग्री प्रथम अच्युतेंद्र ने अभियोगिक देवों द्वारा मंगाकर पूजा की जब तैयारी की तब वहां खड़े हुए देव कलश हाथ में होने से ऐसे लगे कि जैसे तुंब के जरिये समुद्र तैरने को लोग तैयार होते हैं वैसेही देव कलश द्वारा संसार समुद्र तिरने को खड़े हैं अथवा अपना भाव रूप वृक्ष का मिंचन करने को तैयार होने के माफक दीखते थे इन्द्र ने प्रभु का अनंत चल न जानकर शंका की कि पानी बहुत और प्रभु का शरीर छोटा तां किस तरह वो इतना पानी सहन कर सकेंगे ऐसी अज्ञानता से इन्द्र ने विलम्ब किया, प्रभु ने इसका संशय दूर करने को दाहिने पैर के अंगठे से मेरु पर्वत का दवाया जिससे अचल पर्वत पूजने लगा कवि ने घटना कि प्रभुके स्पर्श से हर्पित होकर मेरू पर्वत भी ( नृत्य ) नाचने लगा पर्वत के घूजने के कारण उस पर के दृच और शिक्षाएँ गिरने लगी जिसे देख इन्द्र को भग हुवा कि ऐसे मांगलिक कार्य के समय यह अमंगल सूचक बातें क्यों होती हैं उसने अवधि ज्ञान का उपयोग दिया और सर्व बात को जानकर प्रभू का अतुल बल जानकर क्षमा मांग कर स्नान कराया वा अन्य इन्द्रों ने भी अभिषेक किया.
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