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( ७६ ) कि दुर्भागी दरिद्री के हाथ में चिंतामणी रत्न नहीं रहता ऐसेही मेरे घर में ऐसा पुत्र रत्न कहां से रह सकता है.
अरे देव ! मेरे मन रूप भूमि में अनेक मनोरथ रूप कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ उसको तैने जड़ों से ही काट डाला अर्थात् पुत्र होने बाद जो सुख मिलने की उम्मेट थी वो सब नष्ट होगई.
हे देव ! तेने मुझे मेरु पर्वत पर चढाकर नीचे गिरादी अर्थात् मुझे उंची आशाएं कराकर आशाएं सब भ्रष्ट कर डाली.
हे देव तेरा क्या दोष है ! मैंने पूर्वभव में ऐसे अघोर पाप किये होंगे, छोटे बच्चों को उसकी माता से दूरकर दूध पिलाने में वियोग कराया होगा तोते चकवा कबूतर वगैरह को पांजरे में डाले होंगे वाल हत्या की होगी शोकिला पुत्र को मराया होगा, कोई के चालक को गाली दी होगी अपने पति को छोड़ दूसरे का संग किया होगा किसी को जूठे कलंक दिये होंगे ! सति साध्वी साधु को संताप दिया होगा नहीं तो ऐसे दुखों का देर मेरे शिर पर कहां से आता!
हे सखि ! मैं जानती थी कि मैंने चौदह स्वप्न देखे हैं तो सर्वत्र पूजित पुत्र को जन्म दूंगी किंतु वो सब निष्फल होगये मनके मनोरथ मनमें ही रहगये.
अब मैं कहां जाऊं किस के आगे दुःख कहुं ? धिक्कार हो ! ऐसा क्षणिक मोहक संसार सुख को।
हे सखी ! दोष किसको देना ! मैंने पाप किये होंगे उसका फल जो दुर्दैव है उससे विचार करना भी फुकट है. घुबड पक्षी दिन में न देखे तो मूर्य का क्या दोष ? वसंतु ऋतु में केरडा को पान न आवे तो वसंत का क्या दोष है. हं सखी आप जाओ विघ्न शांति के लिये कुछ उपाय करो ! मंत्र वादिओं को शुलाओ क्योंकि मेरा गर्भ पहिले हिलता था अब नहीं हिलता इसलिये मैं जानती हूं कि उसकी कुछ भी हानि हुई होगी. ,
इस बातको सुनकर सखिये सिद्धार्थ राजा को कहने को दोड़ी.
सिद्धार्थ राजा भी वह अमंगल सूचक बात सुनकर उदास होगया और मृदंग वीणा वगेरह अनेक वार्जित्रों से जो सभा गाज रही थी वह भी वन्द होगया सर्वत्र शून्य दीखने लगा और उपाय करने लगे ).