Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 9
________________ गायारपणयं और बीरस्तव को गिना गया है। कहीं भक्तपरिज्ञा को नहीं गिनकर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है । इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा--:'आउरपच्चरखाण (आतुर प्रत्याख्यान) के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। मुनि श्री पूण्यविजय जी के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं-- (१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) भक्तपरिज्ञा, (४) संस्तारक, (५) तंदुलवैचारिक, (६) चन्द्रवेध्यक, (७) देवेन्द्रस्तव, (4) गणिविद्या, (९) महाप्रत्याख्यान, (१०) बीरस्तब, (११) ऋषिभाषित, (१२) अजीवकल्प, (१३) गच्छाचार, (१४) मरणसमाधि, (१५) तीर्थोद्गालिक, ११६) आराधनापताका, (१७) द्वीपसागर प्राप्ति, (१०) ज्यातिष्करण्डक, (१९) अंगविद्या, (२०) सिद्धाभत, (२१) सारावली भोर (२२) जीव विभक्ति। इस प्रकार मुनि श्री पुष्यनिन ही ने बाईस प्रकीर्णकों में गल्छाचार का भी उल्लेख किया है। आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रन्थ सिद्धान्तागमस्तव की विशालराजकृत वृत्ति में भी गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जहाँ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसत्र की सचियों में गच्छाचार का उल्लेख नहीं है वहाँ आचार्य जिनप्रभ को सुनियों में गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख है। इसका तात्पर्य १, पइण्णयसुत्ताई सम्पा० मुनि पुग्यविजय, प्रका० श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई; भाग १, प्रथम संस्करण १९८४, प्रस्तावना पृष्ठ २० २. अमिधान राजेन्द्र कोश, भाग २, पृष्ठ ४१ ३. पइण्णयसुताई, भाग १, प्रस्तावना पृष्ठ १८ । ४. चन्द मरणसमाधि प्रत्यायाने 'महा'-ऽऽनुरोपपदे । संस्तार-चन्द्रवेध्यक-भक्तपरिज्ञा-चतुःवारणम् ॥३२॥ बीरस्तत्र-रेवेन्द्ररतव-गन्छ। वारमपि च गणिविद्याम् । दीपाब्धिप्रति तण्डुलवंतालिकं च नमुः ।।३।। उद्धृत-H. R. Kapadia, The Canonical Literature of the Jaiims-p. 51,

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