________________
गच्छायारपइण्णयं
और दिगम्बर परम्परा की समिद्धि दीका में भी मानार प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि ६ठी शताब्दी से पूर्व इस ग्रन्थ का कोई अस्तित्व नहीं था। मच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है जहाँ चौदह प्रकीर्णकों में गच्छाचार को अन्तिम प्रकीर्णक गिना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती अर्थात् ६ठों शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा अर्थात १४वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। मच्छाचार प्रकीर्णक के रचयिता ने जिस प्रकार ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के रूप में कहीं भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है उसी प्रकार इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सन्दर्भ में भी उसने ग्रन्थ में कोई संकेत नहीं दिया है। किन्तु ग्रन्थ की १३५वीं गथा में ग्रन्थकार का यह कहना कि इस ग्रन्थ की रचना महानिशीथ, कल्प और व्यवहारसूत्र के आधार पर की गई है* इस अनुमान को बल देता है कि गच्छाचार की रचना महानिशीथ के पश्चात् ही कभी हुई है।
महानिशीथ का उल्लेख नन्दीसूत्र की सूची में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ ६ठी शताब्दी पर्व का ग्रन्थ है किन्तु महानिशीग की उपलब्ध प्रतियों में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि महानिशीथ की प्रति के दीमकों द्वारा भक्षित हो जाने पर उसका उद्धार आचायं हरिभद्रसरि ने ८वीं शताब्दी में किया था । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महानिशीथ ग्रन्थ भले ही ६ठी शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में रहा हो, किन्तु उसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण तो आचार्य हरिभद्र की ही देन है। इससे यही प्रति
१. विधिमार्गप्रपा, पृष्ठ ५७-५८ । २. "महानिसीह - करपाओ ववहाराओ तहेन य । साहु-साहुणिअछाए गच्छाधारं समुद्धियं ।।"
__. गमछाचार प्रकीर्णका, गाथा १३५ ३. नन्दीसूत्र--सम्पा० मुनि मधुकर, गुत्र ७६, ७९-८१ ४. उद्धृत ---जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग २, पृष्ठ २९१-२९२