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गच्छायापइण्ण
साध्वी स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस गच्छ में छोटी तथा युवा अवस्था वाली साहित्रयां उपाश्रय में अकेली रहती हों, कारण विशेष से भी रात्रि के समय दो कदम भी उपाश्रय से बाहर जाती हों, गृहस्थों से अश्लील अथवा सावध भाषा में वार्ता करती हों, रंगीन वस्त्र धारण करती हों, अपने शरीर पर तल मर्दन करती हों, स्नान आदि द्वारा शरीर का मार करती हों, रूई से भरे गहों पर शयन करती हों या शास्त्र विपरीत ऐसे ही अनेकानेक कार्य करती हों, वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है (१०५-११६) ।
फिन्तु जिस गच्छ की साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो तथा जहाँ सावध भाषा नहीं बोली जाती हो, अर्थात् जहाँ शास्त्र विपरीत कोई कार्य नहीं होता हो, वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है (११७ ।
नन्थ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का आचार निरूपण करते हुए बतलाया गया है कि ऐसी साहिबां आलोचना नहीं करती, मुख्य साध्वी की आज्ञा का पालन नहीं करतीं, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करती, किन्तु वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, रंग-बिरंगे वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अनेकबार अपने शरीर के अंगोंपांगों को धोती हैं, गृहस्थों को आज्ञा देती हैं, उनके शय्या-पलंग आदि का उपयोग करती हैं, इस प्रकार वे स्वाध्याय, प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन आदि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं, किन्तु जो नहीं करने योग्य कार्य हैं, उनको वे करती है ।११4-१३४)।
ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि महानिशीथ, कल्प (बृहकल्प) और व्यवहार सूत्र तथा इसी तरह के अन्य ग्रन्थों से 'मच्छाचार' नामक यह ग्रन्थ समृद्धत किया गया है। साधु-साध्वियों को चाहिए कि वे स्वाध्यायकाल में इसका अध्ययन करें तथा जैसा आचार इसमें निरूपित है वैसा ही वे आचरण करें (१३५-१३७) ।
गच्छाचार-प्रकोणक की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आगम विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है । गच्छाचार में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ शिथिलाचार का विरोध किया गया है। यथा गाथा ८५ में सर कहा गया है कि जिन ३ का साधु वेरावारी भाचार्य स्वयं ही