Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 49
________________ गच्छाचार प्रकीर्णक १७ (६१) भयंकर दुष्काल होने पर प्राण त्याग का कष्ट आ जाये फिर भी जहाँ साधु बिना विचारे साध्वी द्वारा लाया गया बहार ग्रहण नहीं करते हों, हे गौतम! उसी गच्छ को गच्छ कहते हैं । (६२) जहाँ दन्तविहीन वृद्ध साधु भी साध्वियों से वार्तालाप नहीं करते तथा स्त्रियों के अंगोपांगों को नहीं देखते हैं, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । (६३) हे अप्रमत्त ( मुनिवरों ) ! साध्वियों के संसर्ग को अग्नि तथा विष के समान वर्जित समझो। जो साधु इनका संसर्ग करता है, वह शीघ्र ही निन्दा को प्राप्त होता है । (६४-६५) वृद्ध. तपस्वी, बहुश्रुत तथा प्रमाणभूत साधु भी यदि आर्यिका का संसर्ग करता है तो उसकी निन्दा होती है तो फिर यदि युवा, उत्कृष्ट तपस्या नहीं करने वाला और अबहुश्रुत सोधु आर्यिका का संसर्ग करेगा तो वह क्यों नहीं लोगों में निन्दा का पात्र बनेगा ? अर्थात् उसकी निन्दा अवश्य होगी । (६६) यदि साधु स्थिर मन वाला है तो भी आर्यिका का संसर्ग होने पर उसका मन उसी प्रकार पिघल जाता है ( विकृत हो जाता है) जिस प्रकार अग्नि के समीप होने पर घृत पिघल जाता है । (६७) सभी स्त्री वर्ग के प्रति जो व्यक्ति सदैव सजग रहता है और उनका विश्वास नहीं करता है, वहीं ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता । (६८) समस्त सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्त साधु ही पूर्णतः स्वाधीन होता है किन्तु जो आर्यिकाओं के साथ संसर्ग में रहता है, वह निश्चय ही पराधीन होता है। (६९) जिस प्रकार श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी अपने आपको निकाल पाने में असमर्थ होती है उसी प्रकार आर्यिकाओंके संसर्ग में रहने बाला साधु अपने आपको मुक्त करा पाने में असमर्थ होता है । ( ७० ) साधु के लिए संसार में आर्यिका के समान और कोई बन्धन नहीं है तथा धर्म में स्थित रहने के लिए ज्ञानी के सदृश अन्य कुछ नहीं है ।

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