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सम्पादक प्रो० सागरमल जैन
मागम संस्थान प्राधमाला : ११
गच्छायारपइण्णयं
(गच्छाचार-प्रकीर्णक) { मुनि पुण्यविजय जी द्वारा संपादित मूलपाठ)
अनुवादक डॉ. सुरेश सिसोदिया
शोधाधिकारी आगम ओहमा-समता एवं प्राकृत संस्थान
उदयपुर ( राज)
भूमिका प्रो. सागरमल जैन डॉ. सुरेश सिसोदिया
आगम, अहिंसा - समता एवं प्राकृत संस्थान
उदयपुर
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प्रकाशकीय अर्धमागधी जैन आगम साहित्य भारतीय संस्कृति और साहित्य की अमूल्य निधि है। दुर्भाग्य से इन ग्रन्थों के अनुवाद उपलब्ध न होने के कारण जनसाधारण और विद्वद्वर्ग दोनों ही इनसे अपरिचित हैं। आगम ग्रन्यों में अनेक प्रकीर्णक प्राचीन और अध्यात्मप्रद होते हुए भी अप्राप्त से रहे हैं । यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्य मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित इन प्रकीर्णक ग्रन्थों का प्रकाशन श्री महावीर जन विद्यालय, बम्बई से हो चुका है. नु गे अभाव में जनसाधारण के लिए ये ग्राह्य नहीं बन सके। इसी कारण जनविद्या के विद्वानों की समन्वय समिति ने अनुदित आगम ग्रन्थों और आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद के प्रकाशन को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और इसी सन्दर्भ में प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य आगम संस्थान को दिया गया। संस्थान द्वारा अब तक देवेन्द्रस्तव, तंदुल. वैचारिक, चन्द्रवेध्यक, महाप्रत्याख्यान. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति तथा गणिविधा नामक छः प्रकीर्णक अनुवाद सहित प्रकाशित किये जा चके हैं।
हमें प्रसन्नता है कि संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. सुरेशा सिसोदिया ने 'गच्छायारपइण्णय' का अनुवाद सम्पूर्ण किया। प्रस्तुत ग्रन्थ की सूविस्तृत एवं विचारपूर्ण भूमिका संस्थान के मानद निदेशक प्रो० सागरमल जी जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया ने लिखकर ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है. इस हेतु हम उनके कृतज्ञ हैं।
हम संस्थान के मार्गदर्शक प्रो० कमलचन्द जी सोगानी, मानद सहनिदेशिका डॉ. सुषमाजी सिंघवी एवं मन्त्री श्री वीरेन्द्र सिंह जी लोढा के भी आभारी हैं, जो संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन दे रहे हैं । डॉ० सुभाष कोठारी भी संस्थान की प्रकीर्णक अनुवाद योजना में संलग्न हैं अतः हम उनके प्रति भी आभारी हैं !
प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन हेतु श्री सोहनलाल जी सिपानी ने दस हजार रुपये का अर्थ सहयोग प्रदान किया है, एतदर्थ हम उनके प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। ग्रन्थ के सुन्दर एवं सत्त्वर मुद्रण के लिए हम डिवाइन प्रिन्टर्स के भी आभारी हैं। गुमानमल चोरडिया
सरदारमल कांकरिया अध्यक्ष
महामन्त्री
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विषयानुभ
गाथा क्रमांक पृष्ठ क्रमांक
७-३६
विषय भूमिका मंगल और अभिधेय उन्मार्गगामी गच्छ में रहने से हानि सन्मार्गगामी गच्छ में रहने से लाभ आचार्य-स्वरूप वर्णन अधिकार साधु-स्वरूप वर्णन अधिकार साध्वी स्वरूप वर्णन अधिकार
३-११
४१-१०६
११-२५
१०७-१३४
समापन
१३५-१३७
२७-३३
३३ ३४-३६
गाथानुक्रमणिका
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भूमिका
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है. वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है। यद्यपि जैन परम्परा में आगम न तो वेदों के समान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाइबिल और कुरान के समान किसी पंगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश है, अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाश पाया था । यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों के प्रवक्ता तीर्थकरों को माना जाता है. किन्तु हमें यह मान रवनः शाह दीयंदा मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं। जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रंथ का निर्माण गणघर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते हैं।
जैन-परम्परा हिन्दू-परम्परा के समान शब्द पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है। उसकी दष्टि में शब्द नहीं, अर्थ ( तात्पर्य ) ही प्रधान है। शब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन-परम्परा के आगम ग्रंथों में यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वे वेदों के समान शब्द रूप में अक्षुण्ण नहीं रह सके। यही कारण है कि आगे चलकर जंन आगम साहित्य अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है, अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है । शौरसेनी आगम-साहित्य का विकास भी अद्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रंथों के आधार पर हुआ है । अत: अर्द्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है। यद्यपि यह अर्द्धमागधी १. अत्यं भासइ अरहा मुत्तं गंथंति गणहा"-आवश्यकनियुक्ति
गाथा १२ ।
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गच्छाचारपइणणयं आगम-साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् ९८० या ९९३ को बल भी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में अनेक बार संकलित और सम्पादित होता रहा है । अतः इस अवधि में उस में कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी हुआ है और उसका कुछ अंश काल कवलित भी हो गया है,।
प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम-साहित्य अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दी विभागों में विभाजित किया जाता था। अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रंथ समाहित किये जाते थे, जो श्रुत केवली एवं पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचित माने जाते थे। पुनः अंगबाह्य आगम-साहित्य को नन्दीसूत्र में आवश्यक
और आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। साजनक सिविता के भी : लालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये गये हैं । नन्दीसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है
श्रुत ( आगम)'
अंगप्रविष्ट
अंगवार
आवश्यक
भावश्यक व्यतिरिक्त
आचारांग सूत्रकृतांग स्थानाज समवायाज व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशांग अन्तकृतदशांग अनुत्तरोपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्र दृष्टिवाद
सामायिक चतुविशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान
१. नन्दीसूत्र ...सं० मुनि मधुकर, सूत्र ७३, ७९-८१ ।
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भूमिका
कालिक
उत्कालिक
दशवकालिक कल्पिकाकल्पिक चुल्लकल्पश्रुत महाकल्पश्रुत औपपातिक राजप्रश्नीय जीवाभिगम प्रज्ञापना महाप्रज्ञापना अमावाप्रमाद नन्दीसूत्र अनुयोगदार
उत्तराध्ययन दशाश्रुतस्कन्ध कल्प व्यवहार निशीथ महानिशीथ कृषिभाषित जम्बूदीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागरप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति महल्लिकाविमानप्रविभक्ति अंगचूलिका वगचूलिका विवाहचूलिका अरुणोपपात वरुणोपपात गरुडोपपात धरणोपपात वैश्रमणोपपात वेलन्धरोपपात देवेन्द्रोपपात उत्थानश्रुत समुत्थानश्रुत नागपरिज्ञापनिका निरयावलिका कल्पिका कम्पावतंसिका पुष्पिका पुष्पचूलिका वृष्णिदशा
देवेन्द्रस्तव तंदुलवैचारिक चन्द्रवेश्यक सूर्यप्रज्ञप्ति पौरुषीमंडल मण्डलप्रवेश विद्याचरण विनिश्चय गणिविद्या ध्यानविभक्ति मरणविभक्ति आत्मविशोधि वीतरागश्रुत संलेखणाश्रुत विहारकल्प बरणविधि आतुरप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान
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गच्छाया रपणणय
नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में मिलने वाले उपरोक्त वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तब, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-- ये सात नाम तथा कालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति--ये दो नाम, अर्थात वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। किन्तु उपरोक्त वर्गोकरण में गच्छायारपइण्णय गच्छाचार-प्रकीर्णक) का कहीं भी उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहाँ अंगबाह्य चौदह ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवकालिकसूत्र, दक्षाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प, जीतकल्प और निशीथ सूत्र आदि ग्रन्यों के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है।
गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तंदुलबैचारिक, मरणसमाप्ति, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी और सबसे अन्त में गच्छाचार का उल्लेख हुआ है। यहां यह ज्ञातव्य है कि विधिमार्गप्रपा में 'दीपसागरप्रज्ञप्ति' और 'संग्रहणी' को भिन्न-भिन्न प्रकीर्णक बतलाया गया है, जबकि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का नामोल्लेख द्वीपसागरप्रज्ञप्ति संग्रहणी गाथा (दीवसागरपण्णत्ति संगहणी गाहाओ) रूप में मिलता है। हमारी दृष्टि में विधिमार्गप्रपा में सम्पादक की असावधानी से यह १. (क) नन्दीसूत्र सम्गा मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
याचर; ई० सन् १९८२, पृष्ठ १६१-१६२ । (ख) पाक्षिकमूत्र प्रका देवचन्द्र लालमाई जन पुस्तकोद्धार, पृष्ठ ७६ । २. देवभन्थयं -तंदवालिय-
मसमाहि-महापावडाण-आउरपच्चक्खाणरांधारय-चंदाविज्झय-च 3 सरण-वीस्थय-गणिविना-दीवसागरपण्णत्तिसंगहणी-गन्छामारं = इच्माइपइण्णगाणि इशिकस्केण निविएण वच्चंति ।
-विधिमार्गप्रपा, सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ ५७-५८
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भूमिका मलती हुई है। वस्तुतः 'द्वीपसागरप्रज्ञप्ति' और 'संग्रहणी' ये दो भिन्न प्रकीर्णक नहीं होकर एक ही प्रकीर्णक हैं।
विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गई है उसमें गच्छाचार के पश्चात् महानिशीथ के अध्ययन का उल्लेख है' । विधिमार्गप्रपा में गच्छाचार का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे १४वीं शती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थडुरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांगसूत्र में "चोरासीई पइण्णग सहस्साई" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजर होणकोही शोर संकेत किया गया है । आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है, किन्तु वर्तमान में ४५ आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं। ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित हैं
(१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान, (४) भक्तपरिज्ञा, (५) तन्दुल वैचारिक, (६) संस्तारक, (७) गच्छानार, (4) गणिविद्या, (९) देवेन्द्रस्तव और (१०) मरणसमाधि'।
इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। कुछ नन्थों में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक
१. विधिमार्गप्रया, पृष्ठ ५८ । २. समवायांगसूत्र-राम्पा मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकायान समिति
व्यावर; प्रथम संस्करण १९८२, ८४ यां समवाय, पृष्ठ १४३ । ३. (क) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनामक इतिहास, ले० डॉ०
जगदीश चन्द जैन, पृष्ठ १९७ । (ख) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, ल० देवेन्द्रमुनि शास्त्री;
पृष्ठ ३८८। (ग) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, ले० मुनि नाराज,
पुष्ठ ४८६ ।
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गायारपणयं और बीरस्तव को गिना गया है। कहीं भक्तपरिज्ञा को नहीं गिनकर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है । इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा--:'आउरपच्चरखाण (आतुर प्रत्याख्यान) के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं।
दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। मुनि श्री पूण्यविजय जी के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं--
(१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) भक्तपरिज्ञा, (४) संस्तारक, (५) तंदुलवैचारिक, (६) चन्द्रवेध्यक, (७) देवेन्द्रस्तव, (4) गणिविद्या, (९) महाप्रत्याख्यान, (१०) बीरस्तब, (११) ऋषिभाषित, (१२) अजीवकल्प, (१३) गच्छाचार, (१४) मरणसमाधि, (१५) तीर्थोद्गालिक, ११६) आराधनापताका, (१७) द्वीपसागर प्राप्ति, (१०) ज्यातिष्करण्डक, (१९) अंगविद्या, (२०) सिद्धाभत, (२१) सारावली भोर (२२) जीव विभक्ति।
इस प्रकार मुनि श्री पुष्यनिन ही ने बाईस प्रकीर्णकों में गल्छाचार का भी उल्लेख किया है। आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रन्थ सिद्धान्तागमस्तव की विशालराजकृत वृत्ति में भी गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जहाँ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसत्र की सचियों में गच्छाचार का उल्लेख नहीं है वहाँ आचार्य जिनप्रभ को सुनियों में गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख है। इसका तात्पर्य १, पइण्णयसुत्ताई सम्पा० मुनि पुग्यविजय, प्रका० श्री महावीर जैन
विद्यालय, बम्बई; भाग १, प्रथम संस्करण १९८४, प्रस्तावना पृष्ठ २० २. अमिधान राजेन्द्र कोश, भाग २, पृष्ठ ४१ ३. पइण्णयसुताई, भाग १, प्रस्तावना पृष्ठ १८ । ४. चन्द मरणसमाधि प्रत्यायाने 'महा'-ऽऽनुरोपपदे ।
संस्तार-चन्द्रवेध्यक-भक्तपरिज्ञा-चतुःवारणम् ॥३२॥ बीरस्तत्र-रेवेन्द्ररतव-गन्छ। वारमपि च गणिविद्याम् । दीपाब्धिप्रति तण्डुलवंतालिकं च नमुः ।।३।। उद्धृत-H. R. Kapadia, The Canonical Literature of the Jaiims-p. 51,
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भूमिका
१३
यह है कि गच्छाचार नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के परवर्ती किन्तु विधिमाप्रपा से पूर्ववर्ती है ।
गच्छाचार प्रकीर्णक
गच्छाचार प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है । 'गच्छाचार' शब्द 'गच्छ' और 'आचार'-- इन दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रस्तुत प्रकीर्णक के संबंध में विचार करने के लिए हमें 'गच्छ' शब्द के इतिहास पर भी कुछ विचार करना होगा । यद्यपि वर्तमान काल में जैन सम्प्रदायों के मुनि संघों का वर्गीकरण गच्छों के आधार पर होता है जैसे - खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायचन्द्रगच्छ आदि । किन्तु गच्छों के रूप में वर्गीकरण की यह शैली अति प्राचीन नहीं है । प्राचीनकाल में हमें निर्ग्रन्ध संघों के विभिन्न गणों में विभाजित होने की सूचना मिलती है ।
समवायांगसूत्र में महावीर के मुनि संघ के निम्न तो गणों का उल्लेख मिलता है -- (१) गोदासगण, (२) उत्तरबलिस्सहगण (३) उद्देहगण, (४) चारणगण, (५) उद्दकाइयगण ( ६ ) विस्तवाइयगण, (७) कामधिकगण, (८) मानवगण और ( ९ ) कोटिकरण' ।
कल्पसूत्र स्थविरावली में इन गणों का उल्लेख ही नहीं है वरन ये गण आगे चलकर शाखाओं एवं कुलों आदि में किस प्रकार विभक्त हुए, यह भी उल्लिखित है । कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य यशोभद्र के शिष्य आर्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए, उनमें से आर्य गोदास से गोदासगण निकला । उस गोदासगण की चार शाखाएं हुईं१) ताम्रलिप्तिका (१) कोटिवर्षका (३) पोण्ड्रवर्द्धनिका और (४) दासी स्वबेंटिका । आर्य यशोभद्र के दूसरे शिष्य सम्भूतिविजय के बारह शिष्य हुए, उनमें से आयं स्थूलभद्र के दो शिष्य हुए-- (१) आर्य महागिरि और ( २ ) आर्य सुहस्ति । आर्य महागिरि के स्थविर उत्तरवलिस्सह आदि आठ शिष्य हुए. इनमें स्थविर उत्तरब लिस्सह से उसरबलिस्सहगण निकला। इस उत्तरबलिस्सह् गण की भी चार
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१. समवायांगसुत्र - सम्पा० मुनि मधुकर प्रकार श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर प्रथम संस्करण सन् १९८१ सूत्र ९/२५ ।
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२. कल्पसूत्र, अनु० आर्या सज्जन श्री जी म० प्रा० श्री जैन माहित्य समिति, कलकत्ता पत्र ३३४-३८५ ।
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१४
पच्छायारइण्णवं
शाखाएँ हुई -- (१) कौशाम्बिका (२) सूक्तमुक्तिका, (३) कौटुम्बिका और (४) चन्द्रनागरी ।
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आर्य सुहस्ति के आर्य रोहण आदि बारह शिष्य हुए, उनमें गोत्रीय आय रोहण से 'उद्देह' नामक गण हुआ। उस गण की भी चार शाखाएं हुईं (१ औदुम्बरिका ( २ ) मासपूरिका ( ३, मतिपत्रिका और (४) पूर्ण पत्रिका उद्देहगण की उपरोक्त चार शाखाओं के अतिरिक्त छ: कुल भी हुए (१) नागभूतिक, (२) सोमभूतिक, (३) आर्द्रगच्छ, (४) हस्तलीय, (५) नन्दीय और (६) पारिहासिक |
आर्य सुहस्ति के अन्य शिष्य स्थविर श्रीगुप्त से चारणगण निकला । चारणगण की चार शाखाएं हुईं (१) हरितमालाकारी, (२) शंकाशिया (३) गवेधुका और (४) वज्रनागरी । चारणगण की चार शाखाओं के अतिरिक्त सात कुल भी हुए - ( १ ) वलय, (२) प्रीतिधार्मिक, (३) हालीय, (४) पुष्पमैत्रीय, (५) मालीय, (६) आर्य चेटक और (७) कृष्णसह ।
आर्य सुहस्ति के ही अन्य स्थविर भद्रया से उडुवाटिकगण निकला, उसकी चार शाखाएँ हुई - (१) चम्पका (२) भद्रिका, (३) काकंदिका और (४) मेखलिका । उद्घाटिकगण की चार शाखाओं के अतिरिक्त तीन कुल हुए - - ( १ ) भद्रयशस्क, (२) भद्रगुप्तिक और (३) यशोभद्रिक
आर्य सुहस्ति के अन्य शिष्य स्थविर कामद्धि से वैशवाटिकगण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुई -- (१) श्रावस्तिका (२) राज्यपालिका (३) अन्तरिजिका और ४) क्षेमलिज्जिका । वैशचाटिकगण के कुल भी चार हुए -- (१) गणिक, (२) मेधिक (३) कामद्धिक और (४) इन्द्रपुरक ।
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आर्य सुहस्ति के ही एक अन्य शिष्य स्थविर तिष्यगुप्त से मानवगण निकला, उसकी चार शाखाएँ हुई - - ( १ ) काश्यपका (२) गौतमीयका, (३) वशिष्टिका और मौराष्ट्रिका | मानवगण के तीन कुल भी हुए - (१) ऋषिगुप्तिय, (२) ऋषिदत्तिक और (३) अभिजयंत । आर्य सुहस्ति के ही दो अन्य शिष्यों सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोटिक्रमण निकला, उसकी भी चार शाखाएँ हुई 1१) उच्चैर्नागरी, (२) विद्याधरी, (३) वज्री और (४) माध्यमिका । इस कोटिकगण के
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भूमिका
चार कुल ये--(१) ब्रह्मलीय, (२) वस्त्रलीय, (३) वाणिज्य तथा (४) प्रश्न वाहन।
स्थविर सुस्थित एवं सुप्रतिबुद्ध के पाँच शिष्य हुए, उनमें से स्थविर प्रियग्रन्थ से कोटिकगण की मध्यमाशाखा निकली। स्थविर विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। स्थविर आर्य शान्ति श्रेणिक से उच्च गरी शाखा निकली । स्थविर आयं शान्तिश्रेणिक के चार शिष्य हुए -(१) स्थविर आर्य श्रेणिक, २) स्थविर आर्य तापस, (३) स्थविर आयं कुबेर और (४) स्थविर आय ऋषिपालित । इन चारों शिष्यों से क्रमशः चार शाखाएं निकलीं- (१) आर्य श्रेणिका, (२) आर्य जामती: (३) मी और (0) आर्य ऋषिपालिता।
स्थविर आर्य सिंहगिरि के चार शिष्य हुए--(१) स्थविर आर्य धनगिरि, (२) स्थविर आर्य बज्र (३) स्थविर आर्य सुमित और (४) स्थविर आर्य अर्हद्दत । स्थविर आर्य सुमितसरि से ब्रह्मदीपिका तथा स्थविर आर्य वनस्वामी से बनीशाखा निकली। आर्य वस्त्रस्वामी के तीन शिष्य हुए-(१) स्थविर आर्य वनसेन, (२) स्थविर आर्य पद्म और (३) स्थविर आर्यरथ । इन तीनों से क्रमशः तीन शाखाएँ निकली - (१) आर्य नागिला, (२) आर्य पद्मा और (३) आर्य जयन्ती।
इस प्रकार कल्पसूत्र स्थविरावली में मुनि संघों के विविध गणों, कुलों और शाखाओं के उल्लेख तो उपलब्ध होते हैं, किन्तु उसमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का उल्लेख नहीं हआ है । अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अंग-उपांम ग्रन्थों में हमें कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के अर्थ में नहीं मिला है, अपितु उनमें सर्वत्र 'गच्छ' शब्द का प्रयोग 'गमन' अर्थ में ही हुआ है।
ईसा की पहली शताब्दी से लेकर पांचवीं-छठी शताब्दी तक के मथुरा आदि स्थानों के जो अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें भी कहीं भी 'गच्छ' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । वहाँ सर्वत्र गण, कुल, शाखा और अन्वय के ही उल्लेख पाये जाते हैं। दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के भी जो प्राचीन अभिलेख एवं ग्रन्थ पाये जाते हैं; उनमें भी गण, कुल, शाखा एवं अन्वय के उल्लेख ही मिलते हैं । गच्छ के उल्लेख
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गच्छायारपइणयं
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तो ९वीं शताब्दी के बाद के ही मिलते हैं।" इस आधार पर हम निश्चित रूप से इतना तो कह ही सकते हैं कि 'गच्छ' शब्द का मुनियों के समूह अर्थ में प्रयोग छठीं शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ है ।
अभिलेखीय साक्ष्य की दृष्टि से प्राचीनतम अभिलेख वि० सं० १०११ अर्थात् ईस्वी सन् ९५४ का उपलब्ध होता है जिसमें 'बृहद्गच्छ' का नामोल्लेख हुआ है। साहित्यिक साक्ष्य के रूप में 'गच्छ' शब्द का इस अर्थ में उल्लेख हमें सर्वप्रथम ओघनिर्मुक्ति ( लगभग ६ठीं - ७वीं शताब्दी) में मिलता है जहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार समुद्र में स्थित समुद्र की लहरों के थपेड़ों को सहन नहीं करने वाली सुखाभिलाषी मछली किनारे चली जाती है और मृत्यु प्राप्त करती है उसी प्रकार गच्छ रूपी समुद्र में स्थित सुखाभिलाषी साधक भी गुरुजनों की प्रेरणा आदि को त्याग कर गच्छ से बाहर चला जाता है तो वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होता है । यद्यपि ओघनिर्मुक्ति का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में उल्लिखित दस नियुक्तियों में नहीं है क्योंकि सामान्यतः यह माना जाता है कि ओघनियुक्ति आवश्यक निर्मुक्ति का ही एक विभाग है, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ओघनिर्मुक्ति की सभी गायायें आवश्यक नियुक्ति में रही हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता । हमारी दृष्टि में ओधनिर्मुक्ति को अधिकांश गाथायें आवश्यक मूल भाष्य और विशेषावश्यक भाष्य के रचनाकाल के मध्य कभी निर्मित हुई हैं ।
१. (क) जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक १४३
(ख) प्रतिष्ठा लेख संग्रह लेख क्रमांक ३४, ३८, ३९, १३३, ८३३ २. "संवत् १०११ बृहद्गच्छीय श्री परमानन्दमुरि शिष्य श्री मक्षदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं." दोलन मित्र श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह,
लेख
..
क्रमांक ३३१
३.
जल सागरंमि मीणा संग्खो सागरम्य अहंता । निति तु सुहामी निमित्ता वितरति ॥ एवं गच्छस मुद्दे सारवीहि चोइया संता । निनि त सुहकामी मीणा व जहा विणस्मंति || --आधनियुक्ति, गाथा ११६-११७
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भूमिका
ओपनियुक्ति के पश्चात् 'गच्छ' का उल्लेख हमें सर्वप्रथम हरिभद्र के पंचवस्तु (6वीं शताब्दी) में मिलता है, जहा न केवल पच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह विशेष के लिए हुआ है, अपितु उसमें 'गच्छ' किसे कहते हैं ? यह भी स्पष्ट किया गया है। हरिभद्रसूरि के अनुसार एक गुरु के शिष्यों का समूह गच्छ कहलाता है। वैसे शाब्दिक दृष्टि से 'गच्छ' शब्द का अर्थ एक साथ विहार आदि करने वाले मुनियों के समूह से किया जाता है और यह भी निश्चित है कि इस अर्थ में 'गच्छ' शब्द का प्रचलन वीं शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ होगा, क्योंकि इससे पूर्व का ऐसा कोई भी अभिलेखीय अथवा साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसमें 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के लिए हआ हो। प्राचीन काल में तो मुनि संघ के वर्गीकरण के लिए गण, शाख, कुल और अन्वय के ही उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली के अन्तिम भाग में वीर निर्वाण के लगभग ६०० वर्ष पश्चात् निवृत्तिकुल, चन्द्रकुल, विद्याधर कुल और नागेन्द्रकुल -इन चार कुलों के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। इन्हीं चार कुलों से निवृत्ति गच्छ, चन्द्र गच्छ आदि गच्छ निकले ! इस प्रकार प्राचीन काल में जिन्हें 'कुल' कहा जाता था वे ही आगे चलकर 'गच्छ' नाम से अभिहित किये जाने लगे। जहाँ प्राचीन समय में 'गच्छ' शब्द एक साय विहार (गमन) करने वाले मुनियों के समूह का सूचक था वहाँ आगे चलकर वह एक गुरु की शिष्य परम्परा का सूचक बन गया। इस प्रकार शनैः शनैः 'गच्छ' शब्द ने 'कुल' का स्थान ग्रहण कर लिया। यद्यपि ८वीं-९वीं शताब्दी तक 'गण', 'शाखा' और 'कुल' याब्दों के प्रयोग प्रचलन में रहे, किन्तु धीरे-धीरे 'गच्छ' शब्द का अर्थ व्यापक हो गया और मण', 'शाखा' तथा 'कुल' शब्द गौण हो गये। आज भी चाहे श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिष्ठा लेखों में 'गण', 'शाखा' और 'कुल' शब्दों का उल्लेख होता हो, किन्तु व्यवहार में तो 'गच्छ' शब्द का ही प्रचलन है।
१. मुरुपरिवारो गच्छो तत्ध वमंतापा निज्जरा विउला ।
निणयाओं तह गारणमाईहि न दोमपहिवसी ।। -पंचवस्तु (हरिभद्रभूरि), प्रका० श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, गाथा ६९६
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गच्छायारपइणय 'गच्छ' शब्द का मुनि समूह के अर्थ में प्रयोग प्रद्यपि ६वीं-७वीं शताब्दी से मिलने लगता है। किन्तु स्पष्ट रूप से गच्छों का आविर्भाव १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध से ही माना जा सकता है। बृहद्गच्छ, संडेरगच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों का प्रादुर्भाव १०वीं-११वीं शताब्दी के लगभग ही हुआ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में हमें मुख्य रूप से अच्छे गच्छ में निवास करने से क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं, इसकी चर्चा के साथ-साथ अच्छे गच्छ और बुरे गच्छ के आचार की पहचान भी कराई गई है। इसमें यह बताया गया है कि जो गच्छ अपने साधु-साध्वियों के आचार एवं क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण रखता है. वहीं गच्छ सुगच्छ है और ऐसा गच्छ ही साधक के निवास करने योग्य है । प्रस्तुत ग्रंथ में इस बात पर भी विस्तार से चर्चा हई है कि अच्छे गच्छ के साधु-साध्वियों का आचार कैसा होता है ? इसी चर्चा के सन्दर्भ में प्रस्तुत नन्ध में शिथिलाचारी और स्वच्छन्द आचार्य की पर्याप्त रूप से समालोचना भी की गई है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जैन परम्पग में भगवान महावीर ने एक कठोर आचार परम्परा की व्यवस्था दी थी किन्त कालक्रम में इस कठोर आचार व्यवस्था में शिथिलाचार और सुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ किन्तु समय-समय पर जैन आचार्यों ने इस स्वच्छन्द और सुविधाबादी आचार व्यवस्था का विरोध करके आगमोक्त प्राचीन आचार व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न किया। गच्छाचार भी एक ऐसा ही ग्रन्थ है जो सुविधाबादी और स्वच्छन्द आचार व्यवस्था के स्थान पर आगमोक्त आचार व्यवस्था का निरूपण करता है। गच्छाचार प्रकीर्णक के सम्पादन में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियां :
हमने प्रस्तुत संस्करण का मूलपाठ मुनि श्री पुण्य विजयजी द्वारा सम्पादित एवं श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णयसुत्ताई' ग्रन्थ से लिया है। मुनि श्री पुषय विजयजी ने इस ग्रन्थ के पाठ निर्धारण में निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग किया है१. सा० : आचार्य श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी द्वारा संपादित एवं
वर्ष १९२७ में आगमोदय समिति, सूरत द्वारा प्रकाशित प्रति ।
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মুমিকা
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२. जे० : आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जैन ज्ञान भण्डार की ताड
पत्रीय प्रति । ३. सं० : संघवीपाडा जैन शान भण्डार की उपलब्ध ताडपत्रीय
प्रति । ४. पु० : मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज' की हस्तलिखित
प्रति । ५. ७० : श्री विजयविमलगणि कृत गच्छाचार प्रकीर्णकवृत्ति,
श्रीभद्राणविजयगणि द्वारा संपादित एवं वर्ष १९७९ में दयाविमल ग्रन्थमाला, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित
प्रति । इन पाण्डुलिपियों की विशेष जानकारी के लिए हम पाठकों से पइण्णयसुत्ताई ग्रन्थ की प्रस्तावना के पृष्ठ २३-२७ देख लेने की अनुशंसा करते हैं। गच्छाचार प्रकीर्णक के प्रकाशित संस्करण :
अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अन्तर्गत अनेक प्राचीन एवं अध्यात्मप्रधान प्रकीर्णकों का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु व्यवहार में इन प्रकीणंकों के प्रचलन में नहीं रहने के कारण अधिकांश प्रकीर्णक जनसाधारण को अनुपलब्ध ही रहे हैं और कुछ प्रकीर्णकों को छोड़कर अन्य का प्रकाशन भी नहीं हुआ है। प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषयवस्तु विशेष महत्त्वपूर्ण है अतः विगत कुछ वर्षों से प्राकृत भाषा में निबद्ध इन ग्रन्थों का संस्कृत, गुजराती, हिन्दी आदि विविध भाषाओं में अनुवाद सहित प्रकाशन हुआ है। गच्छाचार प्रकीर्णक के उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों का विवरण इसप्रकार है
(१) गच्छाचार पइपणयं . आगमोदय समिति, बड़ोदा से "प्रकीर्ण कदशकम्" नामक प्रकाशित इस संस्करण में गच्छाचार सहित दस प्रकीर्णकों की प्राकृत भाषा में मूल गाथाएँ एवं उनकी संस्कृत छाया दी गई है । यह संस्करण वर्ष १९२८ में प्रकाशित हुआ है।
(२) श्री गच्छाचार पयम्ना श्री गच्छाचार पयन्ना नाम से मुनि श्री विजय राजेन्द्र सूरिजी द्वारा अनुवादित दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। प्रथम संस्करण श्री अमीरचन्दजी ताराजी दाणी, घानसा
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गच्छायारपइण्णय
(राज.) से वर्ष १९४५ में प्रकाशित हुआ है इसका वर्ष १९९१ में पुनः प्रकाशन हुआ है। धानसा से प्रकाशित इस संस्करण में प्राकृत गाथाओं का गुजराती भाषा में अनुवाद भी दिया गया है । ___मुनि श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी द्वारा अनुवादित द्वितीय संस्करण श्री भूपेन्द्रसूरि जैन साहित्य समिति, आहोर (मारवाड़) से वर्ष १९४६ में प्रकाशित हुआ है। उक्त संस्करण में प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया एवं गुजराती अनुशद दिया गया है ।
(३) गच्छाचार प्रकीर्णकम् -- गच्छाचार प्रकीर्णक का यह संस्करण प्राकृत गाथाओं एवं संस्कृत वृत्ति सहित दयाबिमल ग्रन्थमाला, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है।
(४) मच्छाचार प्रकीका - आमालनी न जा के शिष्! खजान चन्द जी म. सा. के प्रशिष्य मुनि श्री त्रिलोकचन्द जी द्वारा लिखित यह संस्करण रामजीदास किशोरचन्द जैन, मनासामण्डी से प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थ में प्रकाशन का समय नहीं दिया गया है इसलिए यह बताना सम्भव नहीं है कि यह संस्करण कब प्रकाशित हुआ है। उक्त संस्कृत में प्राकृत भाषा में मूल गाषाएँ उसकी परिष्कृत संस्कृत छाया एवं साथ-साथ हिन्दी भाषा में भावार्थ भी दिया गया है।
(५) गच्छाचार प्रकीर्णकम् ---मुनि श्री विजयविमलगणि द्वारा लिखित यह संस्करण वर्ष १९७५ में श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्नन्धमाला, शांतिपुरी (सौराष्ट्र) से प्रकाशित हुआ है। यह संस्करण भी संस्कृत छाया के साथ प्रकाशित हुआ है ।
(६) श्रीमद गच्छाचार प्रकीर्णकम- आचार्य आनन्द विमल द्वारा लिखित यह संस्करण आगमोदय समति, बड़ौदा से वर्ष १९२३ में प्रकाशित हुआ है । उक्त संस्करण में प्राकृत गाथाओं के साथ वानर्षि कृत संस्कृत वृत्ति भी दी गई है । गच्छाचार के कर्ता
प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिताओं के सन्दर्भ में मात्र देवेन्द्रस्तव को छोड़कर अन्य किसी प्रकीर्णक के रचयिता का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान और भक्तपरिज्ञा
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भूमिका आदि कुछ प्रकीर्णकों के रचयिता के रूप में वीरभद्र का नामोल्लेख उपलब्ध होता है। और जैन परम्परा में वीरभद्र को महावीर के साक्षात शिष्य के रूप में उल्लिखित किया जाता है, किन्तु प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह फलित होता है कि वे भगवान् महावीर के समकालीन नहीं हैं। एक अन्य वीरभद्र का उल्लेख वि० सं० १००४ का मिलता है । सम्भवतः गच्छाचार की रचना इन्हीं वीरभद्र के द्वारा हुई हो। प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रारम्भ से अन्त तक किसी भी गाथा में ग्रन्थकर्ता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है। ग्रन्थ में ग्रन्थका के नामोल्लेख के अभाव का वास्तविक कारण क्या रहा है ? इम सन्दर्भ में निश्चय पूर्वक भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो, किन्तु एक तो ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह कहकर कि श्रुत समुद्र में से इस गच्छाचार को समुद्धत किया गया है, अपने को इस संकलित ग्रन्थ के कर्ता के रूप में उल्लिखित करना उचित नहीं माना हो, दूसरे ग्रन्थ की गाथा १३५ में भी अन्धकार ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि महानिशीथ, कल्प और व्यवहार सूत्र से इस ग्रन्थ की रचना की गई है। हमारी दृष्टि से इस अज्ञात अन्धकर्ता के मन में यह भावना अवश्य रही होगी कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु तो मुनि, पूर्व आचार्यों अथवा उनके ग्रन्थों से प्राप्त हुई है, इस स्थिति में मैं इस ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ ? वस्तुतः प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के समान ही इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है। इससे जहां एक ओर उसकी विनम्रता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है ।
ग्रन्यकर्ता के रूप में हमने पूर्व में जिन वीरभद्र का उल्लेख किया है वह सम्भावना मात्र है इस सन्दर्भ में निश्चयपूर्वक कुछ कहना दुराग्रह होगा । गच्छाचार का रचनाकात
नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें गच्छाचार प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थभाष्य 9. The Canonical Literature of the Jainas, pp. 5!-52 २. Ibid.. P, 52.
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गच्छायारपइण्णयं
और दिगम्बर परम्परा की समिद्धि दीका में भी मानार प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि ६ठी शताब्दी से पूर्व इस ग्रन्थ का कोई अस्तित्व नहीं था। मच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है जहाँ चौदह प्रकीर्णकों में गच्छाचार को अन्तिम प्रकीर्णक गिना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती अर्थात् ६ठों शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा अर्थात १४वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। मच्छाचार प्रकीर्णक के रचयिता ने जिस प्रकार ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के रूप में कहीं भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है उसी प्रकार इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सन्दर्भ में भी उसने ग्रन्थ में कोई संकेत नहीं दिया है। किन्तु ग्रन्थ की १३५वीं गथा में ग्रन्थकार का यह कहना कि इस ग्रन्थ की रचना महानिशीथ, कल्प और व्यवहारसूत्र के आधार पर की गई है* इस अनुमान को बल देता है कि गच्छाचार की रचना महानिशीथ के पश्चात् ही कभी हुई है।
महानिशीथ का उल्लेख नन्दीसूत्र की सूची में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ ६ठी शताब्दी पर्व का ग्रन्थ है किन्तु महानिशीग की उपलब्ध प्रतियों में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि महानिशीथ की प्रति के दीमकों द्वारा भक्षित हो जाने पर उसका उद्धार आचायं हरिभद्रसरि ने ८वीं शताब्दी में किया था । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महानिशीथ ग्रन्थ भले ही ६ठी शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में रहा हो, किन्तु उसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण तो आचार्य हरिभद्र की ही देन है। इससे यही प्रति
१. विधिमार्गप्रपा, पृष्ठ ५७-५८ । २. "महानिसीह - करपाओ ववहाराओ तहेन य । साहु-साहुणिअछाए गच्छाधारं समुद्धियं ।।"
__. गमछाचार प्रकीर्णका, गाथा १३५ ३. नन्दीसूत्र--सम्पा० मुनि मधुकर, गुत्र ७६, ७९-८१ ४. उद्धृत ---जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग २, पृष्ठ २९१-२९२
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भूमिका
फलित होता है कि गच्छाचार के प्रणेता के समक्ष महानिशीथसूत्र अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था। इस आधार पर गच्छाचार की रचना वीं शताब्दी के पश्चात् तथा १३वीं शताब्दी से पूर्व ही कभी हुई है ऐसा मानना चाहिए। हरिभद्रसरि द्वारा आगम ग्रन्थों के उल्लेख में कहीं भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं किये जाने से भी यही फलित होता है कि गच्छाचार की रचना हरिभद्रसूरि (८वीं शताब्दी के पश्चात् ही कगी हुई है।
हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि गच्छाचार में 'गच्छ' शब्द का मुनि संच हेतु जो प्रयोग हुआ है, वह प्रयोग भी ८वीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है। लगभग ८वीं शताब्दी से चन्द्रकुल, विद्याधर कुल, नागेन्द्र कुल और निवृत्तिकुल से नन्द्र गच्छ, विद्याधर गच्छ आदि 'गच्छ' नाम मे अभिहित होने लगे थे। इसमा तो निश्चित है कि गच्छों के अस्तित्व में आने के बाद ही गच्छाचार प्रकीर्णक की रचना हुई होगी। अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से मुनिसंघ के रूप में 'गच्छ' शब्द का प्रयोगावी दाही हे पर्व मनीं मिला। अतः गच्छाचार-प्रकीर्णक किसी भी स्थिति में ८वीं शताब्दी के पर्व की रचना नहीं है । पुनः गच्छाचार प्रकीर्णक में स्वच्छन्द और सुविधावादी गच्छों की स्पष्ट रूप से समालोचना की गई है। यह सुविदित है कि निर्ग्रन्थ संघ में स्वच्छन्द और मुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास चैत्यवास के प्रारंभ के साथ लगभग चौथी शताब्दी में हुआ जिसका विरोध सर्वप्रथम छठी शताब्दी में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ सूत्रपाहुइ, बोधपाहुड एवं लिंगपाहुड आदि में किया ।' श्वेताम्बर परम्परा में शिथिला चारी और स्वच्छन्दाचारी प्रवृत्तियों का विरोध लगभग ८वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थ संबोधप्रकरण में किया है ।' संबोधप्रकरण और गच्छाचार प्रकीर्णक में अनेक गाथाएँ समान रूप से पाई जाती हैं इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन दोनों ग्रन्थों का रचनाकाल समसामयिक १. विस्तार हेतु ट है--- (क) सूत्रहाहुड, गाया ९-१५ ।
(ग्व) बोधपाइड, गाथा १५-२०, ४५-६० ।
(ग) लिंगपाहुड, गाथा १-२ ! २. संबोधप्रकरण, कुगुरु अध्याय, गाया ४०-५० ।
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गच्छामारपइपण
होना चाहिए । यद्यपि इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संबोधप्रकरण और गच्छाचार में समान रूप से उपलब्ध गाथाएँ गच्छाचार में संबोधप्रकरण से ली गई हैं। यदि हम यह मानते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गच्छाचार संबोध प्रकरण से पर. वर्ती है। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्रसूरि के पश्चात स्वच्छन्द और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का विरोध खरतरगच्छ के संस्थापक आचार्य बिरसूरि कार भी पाया गया, उस काल लगभग १०वीं शताब्दी का है। अतः यह भी संभव है कि गच्छाचार की रचना १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा ११वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में कभी हुई हो । पुनः यदि हम गच्छाचार के रचयिता आचार्य वीरभद्र को मानते हैं तो उनका काल ईस्वी सन् को १०वीं शताब्दी निश्चित होता है । ऐसी स्थिति में गच्छाचार का रचनाकाल भी ईस्वी सन् की १०वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिये, किन्तु वीरभद् गच्छाचार के रचयिता हैं, यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अत: गच्छाचार का रचनाकाल ८वीं शताब्दी से १०वीं शताब्दी के मध्य ही कभी माना जा सकता है। विषयवस्तु--
गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल १३७ गाथायें हैं। ये सभी गाथायें गच्छ, आचार्य एवं साधू-साध्वियों के आचार का विवेचन प्ररतत करती हैं । इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है
सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में त्रिदशेन्द्र (देवपति) भी जिसे नमन करते हों, ऐसे महाभाग महावीर को नमस्कार करके गच्छाचार का वर्णन करना प्रारम्भ करता है (१)।
पन्थ में सन्मार्गगामी गच्छ में रहने को ही श्रेष्ठ मानते हुए कहा गया है कि जन्मार्गगामी गच्छ में रहने के कारण कई जीव संसारचक्र में घूम रहे हैं (२)।
सन्मागंगामी गच्छ में रहने का लाभ यह है कि यदि किसी को आलस्य अथवा अहंकार आ जाए, उसका उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिस्स हो जाए तो भी वह गच्छ के अन्य साधूओं को देखकर तप आदि क्रियाओं में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसकी आत्मा में वीरत्व का संचार हो जाता है (३-६)।
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भूमिका आचार्य स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि आचार्य गच्छ का आधार है, वह सभी को हित-अहित का ज्ञान कराने वाला होता है तथा सभी को संसारचक्र से मुक्त कराने वाला होता है इसलिए आचार्य की सर्वप्रथम परीक्षा करनी चाहिए (७-८)।
ग्रन्थ में स्वच्छंदाचारी दुष्ट स्वभाव वाले, जीव हिंसा में प्रवृत्त रहने वाले. शय्या आदि में आसक्त रहने वाले, अपकाय की हिंसा करने वाले, मूल-उत्तर गुणों से भ्रष्ट, समाचारी का उल्लंघन करने वाले, विकथा' कहने वाले तथा आलोचना आदि नहीं करने वाले आचार्य को उन्मार्गगामी कहा गया है और जो आचार्य अपने दोषों को अन्य आचार्यों को बताकर उनके निर्देशानुसार आलोचनादि करके अपनी शुद्धि करते हैं उन्हें सन्मार्गगामी आचार्य कहा गया है (९-१३)।
ग्रन्थ में कहा गया है कि आचार्य को चाहिए कि वह आगमों का चिन्तन, मनन करते हुए देश, काल और परिस्थिति को जानकर साधुओं के लिए वस्त्र, पात्र आदि संयमोपकरण सहण करे। जो आचार्य वस्त्र, पात्र आदि को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते, उन्हें शत्रु जाया है :11५। प्रायसी काहाना है कि जो आचार्य साधु-साध्वियों को दीक्षा तो दे देते हैं किन्तु उनसे समाचारी का पालन नहीं करवाते, नवदीक्षित साधु-साध्वियों को लाड़-प्यार से रखते हैं किन्तु उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करते, वे आचार्य शत्रु हैं। इसी प्रकार मीठे-मीठे वचन बोलकर भी जो आचार्य शिष्यो को हितशिक्षा नहीं देते हों, वे शिष्यों के हित-साधक नहीं हैं। इसके विपरीत दण्डे से पीटते हुए भी जो आचार्य शिष्यों के हित-साधक हों, उन्हें कल्याणकर्ता माना गया है (१६-१७) ।
शिष्य का गुरु के प्रति दायित्व निरूपण करते हुए कहा गया है कि यदि गुरु किसी समय प्रमाद के वशीभूत हो जाए और समाचारी का विधिपूर्वक पालन नहीं करे तो जो शिष्य ऐसे समय में अपने गुरु को सचेत नहीं करता, वह शिष्य भी अपने गुरु का शत्रु है (१८) ।
जिनवाणी का सार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना में बतलाया गया है तथा चारित्र की रक्षा के लिए भोजन, उपधि तथा शय्या आदि के उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों को शुद्ध करने वाले को चारित्रवान आचार्य कहा गया है, किन्तु जो सुखाकांक्षी
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गच्छायारपइग्ण
हो, विहार में शिथिलता वर्तता हो तथा कुल, ग्राम, नगर और राज्य आदि का त्याग करके भी उनके प्रति ममत्व भाव रखता हो, संयम बल से रहित उस अज्ञानी को मुनि नहीं अपितु केवल देशधारी कहा गया है । (२०-२४)। ___ ग्रन्थ में शास्त्रोक्त मर्यादापूर्वक प्रेरणा देने वाले, जिन उपदिष्ट अनुष्ठान को यथार्थ रूप से बतलाने वाले तथा जिनमत को सम्यक प्रकार से प्रसारित करने वाले आचायों को तीर्थङ्कर के समान आदरणीय माना गया है तथा जिन वचन का उल्लंघन करने वाले आचार्यों को कायर पुरुष कहा गया है । (२५-२७) । __ ग्रन्थ के अनुसार तीन प्रकार के आचार्य जिन मार्ग को दूषित करते हैं
(१) वे आचार्य जो स्वयं भ्रष्ट हों। (२) वे आचार्य जो स्वयं भले ही भ्रष्ट नहीं हों किन्तु दूसरों के
भ्रष्ट आचरण की उपेक्षा करने वाले हों तथा (३) वे आचार्य जो जिन भगवान की आज्ञा के विपरीत आचरण
करने वाले हों। ग्रन्थ में उन्मार्गगामी और सन्मार्गगामी आचार्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण अनन्त होता है। ऐसे आचायों की सेवा करने वाला शिष्य अपनी आत्मा को ससार समुद्र में गिराता है । (२९-३१) ।
किन्तु जो साधक आत्मा सन्मार्ग में आरूढ़ है उनके प्रति वात्सल्य भाव रखना चाहिए तथा औषध आदि से उनकी सेवा स्वयं तो करनी ही चाहिए और दूसरों से भी करवानी चाहिए : ३५) ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में लोकहित करने वाले महापुरुषों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ऐसे कई महापुरुष भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान म हैं और भविष्य में होंगे जो अपना सम्पूर्ण जीवन अपने एकमात्र लक्ष्य लोकहित हेतु व्यतीत करते हैं, ऐसे महापुरुषों के चरणयुगल म तानों लाकों के प्राणी नतमस्तक होते है (३६) ।
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भूमिझो आगे की गाथा में यह भी विवेचन है कि ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व का स्मरण करने मात्र से पापकर्मों का प्रायश्चित हो जाता
___ ग्रन्थ में शिष्य के लिए गुरु का भय सदैव अपेक्षित मानते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार संसार में नौकर एवं अश्व आदि वाहन अपने स्वामी की सम्यक देखभाल या नियन्त्रण के अभाव में स्वच्छंद हो जाते हैं उसी प्रकार प्रतिप्रश्न, प्रायश्चित तथा प्रेरणा आदि के अभाव में शिष्य भी स्वच्छंद हो जाते हैं इसलिए शिष्य को सदैव गुरु का भय रहना चाहिए (३०)।
ग्रन्थ में साधुओं के प्रत्येक गच्छ को गच्छ नहीं माना गया है वरन् शास्त्रों का सम्यक अर्थ रखने वाले, संसार से मुक्त होने की इच्छा वाले, आलस्य रहित, व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले, सदैव अस्खलित चारित्र वाले और राग-द्वेष से रहित रहने वाले साधुओं के गच्छ को ही वास्तव में गच्छ माना गया है (३९) । __साधु स्वरूप का निरूपण करते हुए ग्रन्ध में कहा गया है कि गीतार्थ के वचन भले ही हलाहल विष के समान प्रतीत होते हों तो भी जन्हें बिना संकोच के स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वे बचन विष नहीं, अपितु अमृत तुल्प होते हैं। ऐसे वचनों से एक तो किसी का मरण होता नहीं है और कदाचित् कोई उनसे मर भी जाय तो वह मरकर भी अमर हो जाता है । इसके विपरीत अगीतार्थ के वचन भले ही अमृत तुल्य प्रतीत होते हों तो भी उन्हें स्वीकर नहीं करना चाहिए। वस्तुतः वे वचन अमृत नहीं, हलाहल विष की तरह हैं जिससे जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म-मरण से रहित नहीं हो पाता । (४४-४७) अतः अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का विविध रूप से परित्याग करना चाहिए तथा उन्हें मोक्षमार्ग में चोर एवं लुटेरों की तरह बाधक समझना चाहिए (४८-४९)।
ग्रन्थ के अनुसार सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनयपूर्वक पालन करता है, और धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है। वह अभिमान, लोभ, गर्व और विवाद आदि नहीं करता है; वह क्षमाशील होता है, इन्द्रियजयी होता है। स्व-पर का रक्षक होता है, वैराग्यमार्ग में लीन रहता है तथा दस प्रकार की समावारी का पालन करता है और आवश्यक क्रियाओं में संयमपूर्वक लगा रहता है ।(५२-५३)
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गच्छायारपरणय
विशुद्ध गच्छ की प्ररूपणा करते हुए प्रन्थ में कहा गया है कि गुरु अत्यन्त कठोर, कर्कश, अप्रिय, निष्ठुर तथा क्रूर वचनों के द्वारा उपालम्भ देकर भी यदि शिष्य को गच्छ से बाहर निकाल दे तो भी जो शिष्य द्वेष नहीं करते, निन्दा नहीं करते, अपयश नहीं फैलाते, निन्दित कर्म नहीं करते, जिनदेव प्रणीत सिद्धांत की आलोचना नहीं करते अपितु गुरु के कठोर, क्रूर आदि वचनों के द्वारा जो भी कार्य-अकार्य कहा जाता है उसे "तहत्ति" ऐसा कहकर स्वीकार करते हों, उन शिष्यों का गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (५४-५६)।
सुविनीत शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह न केवल वस्त्र-पामादि के प्रति ममता से रहित होता है अपितु वह शरीर के प्रति भी अनासक्त होता है । वह न रूप तथा रस के लिए और न सौन्दर्य तथा अहंकार के लिए आपतु चारित्र के भार को वहन करने के लिए ही गुन नि गाहार पहना करता है (५७-५९)
पांचवें अंग आगम व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वणित प्रश्नोत्तर शैली के अनुसार ही प्रस्तुत ग्रन्थ में भी गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा गया ह कि ह गौतम ! वही गच्छ वास्तव में गच्छ है जहाँ छोटे-बड़े का ध्यान रखा जाता हो, एक दिन भी जो दीक्षा पयाय में बड़ा हो उसकी जहां अवज्ञा नहीं की जाती हो, भयंकर दुष्काल होने पर भी जिस गच्छ के साधु, साध्वी द्वारा लाया गया आहार ग्रहण नहीं करते हो, वृद्ध साधु भी साध्वियों से व्यथं वार्तालाप नहीं करते हों, स्त्रियों के अगोपांगा को सराग दष्टि से नहीं देखते हों ऐसा गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (६०-६२)। ___ साधुओं के लिए साध्वियों के संसर्ग को सर्वथा त्याज्य माना गया है। ग्रन्थानुसार साध्वियों का संसर्ग अग्नि तथा विष के समान वजित है। जो साधु साध्वियों के साथ संसर्ग करता है वह शीघ्नही निन्दा प्राप्त करता है। अन्य में स्पष्ट कहा है कि स्त्री समूह से जो सदैव अनमत्त रहता है, वही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता (६३-७०)।
गच्छाचार-प्रकीर्णक की एक यह विशेषता है कि इसमें कहीं तो सासु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचार मार्ग का निरूपण किया गया है। हमें यह ध्यान रखना
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भूमिका चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा साध्वी के उपलक्षण से किया गया हो वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है। जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग हम देखते हैं जहां मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है. किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है।
ग्रन्थ में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा सकायिक जीवों को किसी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचे, इस हेतु विशेष विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्वयं मरते हुए भी जिस गच्छ के साधु षटकायिक जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते हों, वास्तव में वही गच्छ है (७५-८१) ।
प्रस्तुत प्रन्थ में साधु के लिए स्त्री का तनिक भी स्पर्श करना दष्टि विष सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष की तरह त्याज्य माना गया है और यह कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु बालिका, वद्ध ही नहीं अपनी संसार पक्षीय पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं बहिन का स्पर्श मान भी नहीं करते हों, वहीं गच्छ वास्तविक गच्छ है। साधु के लिए ही नहीं गच्छ के आचार्य के लिए भी स्पष्ट कहा है कि आचार्य भी यदि स्त्री का स्पर्श करे तो उसे मुलगुणों से भ्रष्ट जानें (८२-८७) ।
ग्रन्थ के अनुसार जिस गच्छ के साधु सोना-चांदी, धन-धान्य आदि भौतिक पदार्थों तथा रंगीन वस्त्रों का परिभोग करते हों, वह गच्छ मर्यादाहीन है किन्तु जिस गच्छ के साधु कारण विशेष से भी ऐसी वस्तुओं का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वास्तव में वहीं गच्छ है (८९-९०)।
ग्रन्ध में साध्वियों द्वारा लाए गये वस्त्र, पात्र, औषधि आदि का सेवन करना साधु के लिए सर्वथा वर्जित माना गया है (९१-९६)।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यह निर्देश दिया गया है कि आरम्भ-समारम्भ एवं कामभोगों में आसक्त तथा शास्त्र विपरीत कार्य करने वाले साधुओं के गच्छ को विविध रूप से त्यागकर अन्य सद्गुणी गच्छ में चले जाना चाहिए और जीवन पर्यन्त ऐसे सद्गुणो गच्छ में रहना चाहिए (१०१-१०५)।
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गच्छायापइण्ण
साध्वी स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस गच्छ में छोटी तथा युवा अवस्था वाली साहित्रयां उपाश्रय में अकेली रहती हों, कारण विशेष से भी रात्रि के समय दो कदम भी उपाश्रय से बाहर जाती हों, गृहस्थों से अश्लील अथवा सावध भाषा में वार्ता करती हों, रंगीन वस्त्र धारण करती हों, अपने शरीर पर तल मर्दन करती हों, स्नान आदि द्वारा शरीर का मार करती हों, रूई से भरे गहों पर शयन करती हों या शास्त्र विपरीत ऐसे ही अनेकानेक कार्य करती हों, वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है (१०५-११६) ।
फिन्तु जिस गच्छ की साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो तथा जहाँ सावध भाषा नहीं बोली जाती हो, अर्थात् जहाँ शास्त्र विपरीत कोई कार्य नहीं होता हो, वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है (११७ ।
नन्थ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का आचार निरूपण करते हुए बतलाया गया है कि ऐसी साहिबां आलोचना नहीं करती, मुख्य साध्वी की आज्ञा का पालन नहीं करतीं, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करती, किन्तु वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, रंग-बिरंगे वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अनेकबार अपने शरीर के अंगोंपांगों को धोती हैं, गृहस्थों को आज्ञा देती हैं, उनके शय्या-पलंग आदि का उपयोग करती हैं, इस प्रकार वे स्वाध्याय, प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन आदि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं, किन्तु जो नहीं करने योग्य कार्य हैं, उनको वे करती है ।११4-१३४)।
ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि महानिशीथ, कल्प (बृहकल्प) और व्यवहार सूत्र तथा इसी तरह के अन्य ग्रन्थों से 'मच्छाचार' नामक यह ग्रन्थ समृद्धत किया गया है। साधु-साध्वियों को चाहिए कि वे स्वाध्यायकाल में इसका अध्ययन करें तथा जैसा आचार इसमें निरूपित है वैसा ही वे आचरण करें (१३५-१३७) ।
गच्छाचार-प्रकोणक की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आगम विहित मुनि-आचार का समर्थक और शिथिलाचार का विरोधी है । गच्छाचार में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ शिथिलाचार का विरोध किया गया है। यथा गाथा ८५ में सर कहा गया है कि जिन ३ का साधु वेरावारी भाचार्य स्वयं ही
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মুমিকা स्त्री का स्पर्श करता हो, उस गच्छ को मूल गुणों से भ्रष्ट जाने । गाथा ८९-९० में उस गच्छ को मर्यादाहीन कहा गया है, जिसके साधु-साध्वी सोना-चाँदी, धन-धान्य, कासा-ताम्बा आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेत वस्त्रों को त्यागकर रंगीन वस्त्र धारण करते हों। गाथा ९१ में तो यहां तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, सास्त्रियों द्वारा लाये गये सयमोपकरण का भी उपभोग करते हैं, वह गच्छ मर्यादाहीन है। इसी प्रकार गाथा ९३-९४ में अकेले साधु का अकेली साध्वी या अकेली स्त्री के साथ बैठना अथवा पढ़ाना मर्यादा विपरीत माना गया है।
ग्रन्थ में शिथिलाचार का विरोध करते हुए यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधू क्रय-विक्रय आदि क्रियाएँ करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, उस मच्छ का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए । गाथा ११८-१२२ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि देवसिक, रात्रिक आदि आलोचना करने वाली, साध्वी प्रमुखा की आज्ञा में नहीं रहने वाली, बीमार साध्वियों सीमा नहीं कर पाली, सा, प्रतिजमण, प्रतिलेखन आदि नहीं करने वाली साध्वियों का गच्छ निन्दनीय है।
गच्छाचार-प्रकीर्णक में उल्लिखित शिथिलाचार के ऐसे विवेचन से यह फलित होता है कि गच्छाचार उस काल की रचना है जब मुनि आचार में शिथिलता का प्रवेश हो चुका था और उसका खुलकर विरोध किया जाने लगा। जैन आचार के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि विक्रम की लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी से मुनियों के आचार में शिथिलता आनी प्रारम्भ हो चुकी थी। जैन धर्म में एक ओर जहाँ तन्त्र-मन्त्र और वाममार्ग के प्रभाव के कारण शिथिलाचारिता का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर उसी काल में वनवासी परंपरा के स्थान पर जनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में चंत्यवासी परम्परा का विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पांचवींछठी शताब्दी में जंन मुनिसंघ पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी बन गया और उस पर हिन्दू परम्परा के मठवासी महन्तो की जीवन शैली का प्रभाव आ गया। शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य बुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इस प्रकार देखा जा सकता है
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गच्छावारपडण्णायं
(१) उक्किटुसीहरियं बहुपरियम्मो य गुरुयभारो य । जो विहर इ सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ।।
सूत्रपाहुड, गाथा २) अर्थात् जो मुनि उत्कृष्ट चारिमा र मालन न हो. का तपश्चर्या कर रहा हो तथा आचार्य पद पर आसीन हो फिर भी यदि वह स्वच्छंद विचरण कर रहा हो तो वह पापी मिथ्यादृष्टि है, मुनि नहीं।
(२) जे बावीसपरीसह सहत्ति सत्तीसरहिं संजुत्ता । ते होंति बंदणीया कम्मस्वयणिज्जरा साहू ।।
(सूत्रपाहुड, माथा १२) अर्थात् जो मुनि क्षुधा आदि बाईस प्रकार के परिषदों को सहन करने वाला हों, कर्म क्षय रूप निर्जरा करने वाला हों, वे ही नमस्कार करने योग्य है।
(३) गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया । पावारंभविमुक्का पन्वज्जा एरिसा भणिया ।
(बोधपाहुड, गाथा ४५) अर्थात् सर्वप्रकार के परिग्रहों से जिनको मोह नहीं हों, बाईस प्रकार के परिषहों तथा कषायों को जो जीतने वाले हों तथा सर्वप्रकार के आरम्भ-समारम्भ से जो विरत रहते हों, उन मुनि की दीक्षा ही उत्तम है।
(४) धणधण्णवत्थदाणं हिरण्गसयणासणाइ छत्ताई। कुदाणविरहरहिया पठ्वज्जा एरिसा भणिया ।।
बोधपाहुइ, गाथा ४६) अर्थात् जो मुनि धन-धान्य, सोना-चाँदी, वस्त्र-आसन आदि से रहा हो, उही दीक्षा ही उता है अर्थात वे ही वास्तव में मुनि हैं ।
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३३
भूमिका (५) पसुमहिलसंढसंग कुसीलसंग ण कुणइ निकहानी। सज्झायझाणजुत्ता पच ज्जा एरिसा भणिया ।।
(बोधपाहुड, गाथा ५७) अर्थात् जो मुनि पशु, स्त्री, नपुंसक तथा व्यभिचारी पुरुषों की संगति नहीं करते हों, अपितु स्वाध्याय और ध्यान में निरन्तर निमग्न रहते हों, उनकी दीक्षा ही उत्तम है अर्थात् वे ही वास्तव में मुनि हैं।
(६) कंदप्पाइय चट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धि । मायी लिंग बिवाई तिरिक्खजोणी ण सामणो॥
(लिंगपाहुड, गाथा १२) जो मुनि मुनिलिंग धारण करके भी भोजन आदि रसों में गद्ध रहता हो, उनके प्रति आसक्ति रखता हो, कामसेवन की कामना से अनेक प्रकार के छल-कपट करता हो, वह मायावी है, तिर्यञ्चयोनि अर्थात् पशुतुल्य है, मुनि नहीं।
(७) रामो करेदि णिच्वं महिलावगं परं च दूसेइ । दसणणाणविहीणो तिरिक्ख जोणी ण सो समणो ।।
(लिंगपाहुड, गाथा १७) अर्थात् जो मुनि मुनिलिंग धारण करके भी स्त्री समूह के प्रति राग करता हो, दर्शन और ज्ञान से रहित वह मुनि तिर्यञ्च योनि अर्थात् पशु समान है, मुनि नहीं।
यद्यपि भाचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध होने वाली ये गाथाएँ इसी रूप में गच्छाचार में नहीं मिलतीं किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि इन गाथाओं के द्वारा भी आचार्य कुन्दकुन्द ने मुनियों की स्वच्छंदाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का ही विरोध किया है।
श्वेताम्बर परम्परा में मुनियों की स्वच्छंदाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्रमुरि के ग्रन्थ संबोध
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गच्छायारपइपणयं
प्रकरण में देखा जाता है। गच्छाचार में तथा संबोध प्रकरण के कुगुरु अध्याय में कुछ गाथाएं समान रूप से मिलती हैं, जिनका तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है - (१) जत्थ य मुणिणो कयविक्कयाई कुब्बति निच्चमुझट्ठा । तं गच्छं गुण सायरबिसं व दरं परिहरिज्जा ।।
(संबोधप्रकरण, गाथा ४५) जत्थ य मुणिणो कय-विक्कयाई कन्वंति संजमुभट्टा। में गई मुगलायर : वि व दूरं रिहरेज्जा ।
(गच्छाचार, गाथा १०३)
(२) बत्थाई विविट वण्णाई अइसियसहाई ध्ववासाइ।
पहिरिज्जइ जत्थगणे तं गच्छं मूलगुणमुनकं ।। जत्थ य विकहाइपरा कोउहला दलिंगिणो कुरा। निम्मेरा निल्लज्जा तं गच्छं जाण गुणभट्ठ ।। अन्नत्थियवसहा इव पुरओ गायति जत्थ महिलाणं । जत्थ जयारमयार भणंति आलं सयं दिति ।।
(संबोधप्रकरण, गाथा ४६, ४८, ४९)
सीवणं तुन्नणं भरणं गिहत्याणं तु ला करे । तिल्ल उबट्टणं वा वि अप्पणो य परस्स य ।। गच्छइ सबिलासगई सयणीयं तूलियं सबिम्बोयं । उवट्टेइ सरीरं सिणाणमाईणि जा कुणइ ।। गेहेसु गिहत्थाणं गतूण कहा कहे काहीया। तषणाइ अहिवडते अणुजाणे, सा इ पहिणीया ।।
(गच्छाचार, गाथा ११३-११५)
(३) जत्थ य अज्जालद्धं पडिगहमाइं व विविहमुवगराणं । पडि जइ साहूहि तं गोयम! केरिसं गच्छं ।।
(संबोधप्रकरण, गाथा ५०)
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भूमिका
जत्य य अज्जालद्ध पडिगमाई वि विविमुवगरणं । परिमुज्जइ साहूहि तं मोघम ! केरिसं गच्छं ॥ (गच्छाचार, गाथा ९१ )
(४) वज्जेह
अप्पमत्ता अज्जासंसग्गिग्गविससरिसा । अज्जाणु चरो साहू लहइ अकिति सु अचिरेण ॥ (संबोधप्रकरण, गाथा ५१ )
वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गि अग्गि-विससरिसी । अज्जाणुचरो साहू लes अकिति सु अचिरेण ॥ (गच्छाचार, गाथा ६३)
(५) जत्थ हिरण्णसुवणं हत्थेण पराणगं पि नो छिप्पे । कारण समयं हि गोयमा ! गच्छं तयं भणिमो ॥ (संबोध प्रकरण, गाथा ५२ )
जत्थ हिरण्ण-सुवणं हृत्येण पराणगं पिनो छिप्पे । कारणसमपिपिहू निभिस खणल पि तं गच्छ ॥ (गच्छाचार, गाथा ९०)
३५
गच्छाचार प्रकीर्णक में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य हरिभद्रसूरि की तरह ही जैन मुनियों की स्वछन्दाचारी तथा शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध किया गया है। यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि आचार्य कुन्दकुन्द और हरिभद्रसूरि की आलोचनाओं से जैन मुनिसंघ में यथार्थ रूप से कोई सुधार आ गया था क्योंकि यदि यथार्थ रूप से कोई सुधार आया होता तो भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वी - ९ वीं शताब्दी में भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा न केवल जीवित थी, अपितु फलफूल रही थी। जिसके परिणाम स्वरूप निर्ग्रन्थ परम्परा में स्वच्छन्दाचारी एवं शिथिलाचारी प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी। जैसा कि हम पूर्व में ही यह प्रतिपादित
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गच्छावारपवणयं
कर चुके हैं कि लगभग उसी काल में गच्छाचार की रचना हुई होगी। वस्तुतः गच्छाचार ऐसा ग्रन्थ है जो जैन मुनि संघ को आगमोक्त आचार विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है। इस ग्रन्थ का सम्यक अध्ययन जैन मुनि संघ के लिए इसलिए भी आवश्यक है कि वह आगम निरूपित आदर्श आचार संहिता का आचरण कर अपने को गरिमामंडित कर सके ।
वाराणसी १२ दिसम्बर, १९९४
सागरमल जैन सुरेश सिसोदिया
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पच्छायार पागल
( गा. १ मंगलमभिधेयं च ) नमिऊण महावीरं तियसिंदनमंसिर्य महाभागे । गच्छायार किंची उद्धरिमो सुयसमुद्दाओ ।। १॥
(गा. २. उम्मग्गगामिगच्छसंवासे हाणी) अत्थे गे गोयमा! पाणी जे उम्मग्गपइट्ठिए । गच्छम्मि संवसित्ताणं भमई भवपरंपरं ॥२॥
(गा. ३-६. सदायारगच्छसंवासे गुणाइ) जामद्धं जाम दिण पक्खं मासं संवच्छर पि वा। सम्मग्गपट्ठिए गच्छे संबसमाणस्स गोयमा ! ॥३॥
लीलाअलरामाणस्स निरुच्छाहस्स वीमणं । 'पेक्खोविक्खाइ अन्नेसि महाणु भागाण साहुणं ।।४।।
उज्जम सम्वथामेसु घोर-वीरतवाइयं । लज्ज संकं अइक्कम्म तस्स धिरियं समुच्छले ॥५।।
वीरिएर्ण तु जीवस्स समुच्छलिएण गोयमा। जम्मतरकए पावे पाणी मुहुत्तेण निड्डहे ॥६॥
(गा. ७-४०. आयरियसरूबवण्णणाहिगारो) तम्हा निउणं निहालेउं गच्छं सम्मग्गपट्ठियं । वसेज तत्थ आजम्मं गोयमा ! संजए मुणी ।।७।।
१. पकालाविमवीइ मा । पेवानिवखीइ जे० मा विना ।। २. ईसक्का संक भय लज्जा तस्स सं० । इनासंत भव लज्जा तस्स पु० ।।
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गच्छाचार प्रकीर्णक
(१. मंगल और अभिधेय) (१) त्रिदशेन्द्र* (देव-पति) जिसे नमस्कार करते हों, उन महाभाग
महावीर को नमस्कार करके (में) श्रत रूपी समुद्र में से गच्छाचार का किश्चित् वर्णन करूंगा।
२२. उन्मार्गमामी गच्छ में रहने से हानि) (२) हे गौतम ! कुछ प्राणी ऐसे हैं जो उन्मार्गगामी गच्छ में स्थिर रहकर भव परम्परा में परिभ्रमण करते हैं ।
(३-६ सन्मागंगामी गच्छ में रहने से लाभ) (३.५) हे गौतम! आधा प्रहर, प्रहर, दिन, पक्ष, मास, वर्ष अथवा
इससे भी अधिक समय तक सन्मार्ग में प्रतिष्ठित गच्छ में रहने से यह लाभ होता है कि यदि (किसी को) आलस्य मा जाए, अहंकार आ जाए, उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिन्न हो जाए तो वह अन्य महाभाग्यवान् साधुओं को देखकर तप आदि सभी में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है । तब लज्जा, शंका आदि का अतिक्रमण कर उसका पुरुषार्थ प्रबल हो जाता है।
(६) हे गौतम ! जिस समय जीव में आत्मबल का संचार होता है
उस समय वह जन्मजन्मान्तर के पापों को एक महत्तंभर में धो डालता है।
(७-४० आचार्य स्वरूप वर्णन अधिकार) (७) इसलिए है गौतम ! सन्मार्ग पर चल रहे गच्छ को सम्यक
प्रकार से देखकर संयत मुनि जीवन पर्यन्त उस में रहे ।
* जैन परम्परा में वायत्रिदा देवताओं का एक भेद है और इनका अधिपति
त्रिदशेन्द्र कहलाता है।
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गच्छायारसइण्णाये
मेदी आलंबणं खंभं दिट्टी जाणं सुउत्तम । सूरी 'जं होइ गच्छस्स तम्हा तं तु परिक्खए ।।८।।
भयब ! केहिं लिंगेहि सूरि उम्मगपट्ठियं । वियाणिज्जा छउमत्थे मुणी ? तं मे निसामय ॥९॥
सच्छंदयारि दुस्सीलं, आरंभेसु पबत्तयं । पीढयाइपडीबद्धं, आउक्कायविहिंसगं ॥१०॥
मूलुत्तरगुणब्भ, सामायारीविराहयं । अदिनालोयणं निच्चं निच्च विगहतरायणं ।।११।।
छत्तीसगुणसमन्नागएण तेण वि अवस्स दायवा। परसक्खिया विसोही सुट्ट दि ववहारकुसलेणं ।।१२।।
जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहे अत्तणो वाहि । विज्जुबएस सुच्चा पच्छा सो कम्ममायरइ ।।१३।।
देसं खेत्तं तु जाणित्ता वत्थं पत्तं उवस्सयं । संगहे साहुबम्गं च, सुत्तत्थं च निहालई" ||१४||
संगहोवग्गहं विहिणा न करेइ य जो मणी । समणं समणि तु दिक्खित्ता सामायारि न गाहए ॥१५॥ बालाणं जो उ सीसाणं जीहाए उलिपए।
न सम्ममग्गं गाहेइ सो सूरी जाण वेरिओ ॥१६॥ १. उ सं० ।। २. सूरी सं० ॥ ३. मग्गट्टियं च जाणेज्जा छउमत्ये ? तं मे सं०॥ ४, विज्जोबएस सोचा सं० पु० ॥ निहालिई सं० पु०॥
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गच्छाचार प्रकीर्णक
(6) गमछ के आचार्य मेढी तया सन्म के समान आरमूल सफा
उत्तम दृष्टि (सम्यक दृष्टि) वाले हों, इसकी परीक्षा अवश्य
करनी चाहिए। (९) हे भगवन् ! छअस्प मुनि यह कैसे जानें कि कोन आचार्य उन्मार्ग
में प्रस्थित हैं ? हे मुनि ! इस बारे में तुम मुझसे सुनो।
(१०-११) स्वच्छंदाचारी, दुष्ट स्वभाव वाले, जीव हिंसा में प्रवृत्त, शय्या
आदि में आसक्त, अप काय की हिंसा करने वाले, मूल-उत्तरगणों से भ्रष्ट, समाचारी का उल्लंघन करने वाले तथा आलोचना नहीं करने वाले और नित्य धिकथा कहने वाले आचार्य उन्मार्ग
गामी हैं। (१२) छत्तीस गुणों से युक्त व्यवहार कुशल आचार्य के लिए भी यही
श्रेष्ठ है कि वह दूसरों को साक्षी से अपने दोषों की आलोचना
अवश्य करें। (१३) जिस प्रकार अति कुशल वैद्य भी अपनी बीमारी को किसी
अन्य वैद्य को बतलाता है और उनके निर्देशानुसार चिकित्सा करता है उसी प्रकार कुशल आचार्य भी अपने दोषों को अन्य आचार्य को कहकर उनके निर्देशानुसार आलोचनादि करके
अपनी शुद्धि करते हैं 1 (१४) आचार्य आगम के अर्थ को देखकर तथा देश, काल और परि
स्थिति को जानते हुए साधु-समूह के लिए वस्त्र, पात्र और
उपाश्रय आदि ग्रहण करें। (१५-१६) जो आचार्य (वस्त्र, पात्र आदि) उपधि को विधिपूर्वक ग्रहण
नहीं करते हैं, साधु-साध्वियों को दीक्षा तो दे देते हैं किन्तु उनसे समाचारी का पालन नहीं करवाते हैं, नवदीक्षित शिष्यों को लाड़ प्यार से रखते हैं किन्तु उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करते, उन आचार्य को (तुम) शत्रु जानो।
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गच्छायारपइपणय
जीहाए विलिहतो न भइओ सारणा जहिं नत्थि । डंडेण वि ताईतो स भहओ सारणा जत्थ ॥१७॥
सोसो वि वेरिओ सो उ जो गरुं न विबोहए । पमायमइराघत्थं सामायारी विराहयं ॥१८॥
तुम्हारिसा वि मुणिवर ! पमायवसगा हवेति जइ पुरिसा । तो को अन्नो अम्हं आलं बण होज्ज संसारे ? ॥१९॥
नाणम्मि दसणम्मि य चरणम्मि य तिसु वि समयसारेसु । घोएइ जो ठवेउ मणमप्पाणं च सो य गणी ॥२०॥
पिई उवहिं सेज्जं उगमउप्पायणेसणासुद्धं । चारित्तरक्खणट्ठा सोहितो होइ स चरित्ती ॥२१॥
अप्परिसावी सम्म समपासी चेव होइ कज्जेसु । सो रक्खाइ चक्खू पिव सबाल-बुड्ढाउलं गच्छं ।।२२।।
सीयावेइ विहारं सुहसीलगुणहिं जो अबुद्धीओ। सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण' निस्सारो ॥२३॥
कुल गाम नगर रज्ज पययि जो तेसु कुणइ ह" ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण' निस्सारो ॥२४॥
विहिणा जो उ चोएइ, सुतं अस्थं च गाहए। सोधण्णो, सो य पुण्णो य, स बंधू मोक्खदायगो॥२५॥
१. 'मयरा सं० ॥ २. तेणऽनो को अपु. वृ०॥ ३. य सं० ।। ४. 'मसारेण नि जे० सं० । 'मधारेण नि पु० ॥ ५. अ सा० ।। ६. "मसारेण पु० ।। ७. नीसारो सं० ।।
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गच्छाचार प्रकीर्णन
(१७) जिह्वा के द्वारा मीठे-मीठे वचन बोलते हुए भी जो आचार्य
शिष्यों को हित-शिक्षा नहीं देते हों, वे शिष्यों के हित साधक नहीं हैं। इसके विपरीत दण्डे से पीटते हुए भी जो आचार्य
शिष्यों के हित-साधक हों, वे कल्याणकर्ता हैं । (१०) प्रमाद के वशीभूत हो यदि कभी गुरु समाचारी विराधक हो
जाए तो ऐसे समय में जो शिष्य गुरु को सत्रेत नहीं करता, वह
शिष्य भी (अपने गुरु का) शत्रु है । (१९) हे मुनिवर ! यदि आप जैसे महापुरुष भी प्रमाद के वशीभूत
हो जायेंगे तो इस संसार में कौन दूसरा हमारा सहारा होगा? (२०) जिनवाणी का सार-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना में है।
जो अपनी आत्मा को तथा गच्छ को इन तीनों में स्थापित
मरने की प्रेरणा देता है, वस्ताद में नहीं गन्न " आचार्य है। (२१) चारित्र की रक्षा के लिए भोजन, उपधि तथा शय्या आदि के
उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों को शुद्ध करता हुआ
जो शोभित होता है, वहीं चारित्रवान है। (२२) गोपनीय बात को प्रकट नहीं करने में जो प्रामाणिक हैं और
सभी कार्यों में जो समदर्शी होते हैं, वे आचार्य आबालवृद्ध
समन्वित गच्छ की चक्ष के समान रक्षा करते हैं । (२३) जो सुखाकांक्षी अज्ञानी (मुनि) विचरण में शिथिलता वर्तता है,
वह संयम बल से रहित केवल वेशधारी है। (२४) कुल', ग्राम, नगर और राज्य को त्यागकर भी जो मुनि उनके
प्रति ममत्व करता है, वह संयम बल से रहित केवल
वेशधारी है। (२१) जो आचार्य शास्त्रोक्त मर्यादा पूर्वक शिष्य को प्रेरणा देते हैं
तथा आगम वचन के अर्थ को समझाते हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं, पुण्यवान हैं, मित्रवत हैं और मोक्ष दिलाने वाले हैं।
मुनि जीवन के लिए आवश्यक उपकरण उपनि कहे जाते हैं ।
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गच्छायारपइफ्णय
स एव भव्वसत्ताणं चक्खुभए वियाहिए। दसेइ जो मिणुद्दिढ अणुट्ठाणं जट्ठियं ।।२६।।
तिस्थयरसमो सूरी सम्म जो जिणमयं पयासे ।। भाणं अइक्कमंतो सो काउरिसो, न सप्पुरिसो ॥२७॥
भदायारो सरी १ भदायाराणवेक्खओ सूरी २१ उम्मगठिो सूरी ३ तिनि वि मगं पणासंति ॥२८॥
उम्मग्गठिए सम्मागनासए' जो य सेवए सूरी । नियमेणं सो गोयम ! अप्पं पाडेइ संसारे ॥२९।।
जम्मम्गठिओ एक्को विनासए' भश्वसत्तसंघाए। तम्मग्गमणुसरते जह कुत्तारो' नरो होइ ॥३०॥
उम्मग्गमग्गसंपट्ठियाण सूरीण गोयमा ! पूर्ण । संसारो य अणतो होइ" य सम्मग्गनासीणं ॥ ३१॥
सुद्धं सुसाहुमगं कहमाणो ठवई तइयपक्खम्मि । अप्पाणं, इयरो पुण गित्थधम्माओ' चुक्को ति ॥३२।।
जइ वि न 'सक्कं काउ सम्म जिणभासियं अणुट्ठाणं । 'तो सम्म भासिज्जा जह भणियं खीणरागेहि ॥३३।।
ओसन्नो वि विहारे कम्मं सोहेइ सुलभबोही य ।
चरण-करणं विसुद्ध उहितो पवितो ॥३४॥ १. सम्मत्तना सं० ॥ २. “ए सन्न ।। ३. कुत्तारू न सा० सं० पु० ।। ४. ण साहूण जे० पु० ब० ॥ ५. होई स* जे० ।। ६. चुक्कु त्ति ज० पु० । चुपकेति सा० ॥ ७. सक्कइ का सं५ ।। ८. ता जे० ॥
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गच्छाचार प्रकीर्णक (२६) वे ही आचार्य भव्य प्राणियों के लिए चल के समान अर्थात्
मार्गदर्शक कहे जा सकते हैं जो जिन उपदिष्ट अनुष्ठान (विधि
निषध) को यथार्थ रूप से बतलाते हैं। (२७, जो आचार्य जिनमत को सम्यक् प्रकार से प्रसारित करते हैं, वे
तीर्थकर के समान आदरणीय हैं । किन्तु जो आचार्य जिन वचन
का उल्लंघन करते हैं, वे सत्पुरुष नहीं अपितु कायरपुरुष हैं। (२४) तीन प्रकार के आचार्य जिनमार्ग को नष्ट करते हैं-(१) स्वतः
भ्रष्ट आचरण करनेवाले आचार्य, (२)भ्रष्ट आचरण करनेवालों
की उपेक्षा करने वाले आचार्य तथा (३) उन्मार्गगामी आचार्य । (२९) उन्मार्ग में स्थित तथा सन्मार्ग का नाश करने वाले आचार्य की
जो शिष्य सेवा करता है, हे गौतम ! निश्चय ही वह शिष्य
आत्मा को संसार (समुद्र) में गिराता है । (३०) उन्मार्ग में स्थित एक व्यक्ति भी भव्य जीव समूह को उसी
प्रकार ले डूबता है जिस प्रकार अयोग्य तारक का अनुसरण करते
हुए कई मनुष्य डूब जाते हैं। (३१) हे गौतम ! सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर
प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण निश्चय ही अनन्त
होता है। (३२) अत्यन्त शुद्ध मुनिधर्म का कथन करने वाला अपनी आत्मा को
उसी पक्ष में अर्थात् शुद्ध मुनिधर्म में स्थापित कर लेता है, किन्तु
इससे भिन्न आस्माएँ गृहस्थ धर्म से भी भ्रष्ट हो जाती हैं। (३३-३४) यदि तुम जिन-भगवान् के कथनानुसार सम्यक् आचरण
नहीं कर सकते तो भी कम से कम जिन-भगवान् ने जैसा कथन किया है वसा कथम तो करो, क्योंकि आचरण से शिथिल होते हुए भी जो शुद्ध आचार मार्ग अर्थात् मूल एवं उतरगुणों का प्रशंसक होता है। वह अपने कर्मों का क्षय कर सुलभबोधि होता है।
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गच्छायारसइण्णय
सम्मम्ममग्गसंपट्टियाण सारुण कुणइ वच्छल्लं । ओसह-भेसज्जेहि य सयमन्नेणं तु कारेई ।।३५॥
भूए अस्थि भविस्संति केइ 'तेलोक्कनमंसणीयकमजुमले । जेसि परहियकरणेक्कमद्धलक्खाण वोलिही कालो ।।३६।।
तीयाणागयकाले केई होहिति गोयमा ! सुरी । जैसि नाममहणे वि होज निगपच्छितं ॥३७॥
सहरीभवंति अणवेक्खयाइ, जह-मिच्च-वाहणा लोए। पडिपुच्छ सोहि चोयण, तम्हा उ गुरू सया भयई ॥३॥
जो उ प्पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य । सीसवगं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥३९॥
संखेवेणं मए सोम्म ! बणियं गुरुलपखणं । गच्छस्स लक्खणं धीर ! संखेवेणं निसामय ॥४॥
(गा. ४१-१०६. साहुसरूववण्णणाहिगारो) गोयत्थे जे सुसंविग्गे अणालस्सी दढन्वए । अखलियचरित्ते सययं राग-दोस विवज्जिए ।।४।।
निवियअठ्ठमयठाणे 'समियकसाए जिइदिए ।
विहरिज्मा तेण सद्धि तु छउमत्थेण वि केवली ।।१२।। १. 'नमियक सा ।। २. "हणेण हो जे० सं: पु० ॥ ३. होइ नि जे० ।। ४. परिपुच्छाहि चों जे. वृ०।। ५. मोम ! मं० || ६. मुसिय सा० । सोसिय १० ॥
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गच्छाचार प्रकोणक
૧૧
(३५) जो साधक आत्मा सन्मार्ग में आरुढ हैं उनके प्रति वात्सल्यभाव रखना चाहिए तथा उनकी औषध आदि से स्वयं सेवा करनी चाहिए और दूसरों से करवानी भी चाहिए ।
( ३६ ) ऐसे कई महापुरुष भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, जो अपना सम्पूर्ण जीवन अपने एकमात्र लक्ष्य लोकमंगल ( लोकहित ) हेतु व्यतीत करते हैं। ऐसे महापुरुषों के चरण युगल में तीनों लोकों के प्राणी नतमस्तक होते हैं ।
( ३७ ) हे गौतम! ऐसे कई आचार्य अतीतकाल में हुए हैं और भविष्य में होंगे, जिनका व्यक्तित्व स्मरण करने से पापकर्मों का प्रायश्चित्त हो जाता है ।
(३८) जिसप्रकार संसार में भव्य ( नौकर ) एवं लव आदि बाहन सम्यक् देख-भाल या नियन्त्रण के अभाव में स्वर ( स्वच्छंद ) हो जाते हैं उसी प्रकार प्रतिप्रश्न, प्रायश्चित्त तथा प्रेरणा के बिना शिष्य भी स्वच्छंद हो जाते हैं। इसलिए गुरु का भय सदैव हो अपेक्षित है ।
(३९) जो आचार्य आलस्य, प्रमाद तथा उसी प्रकार के दोष के कारण अपने शिष्यों को प्रेरणा नहीं देते हैं, जिन आज्ञा की विराधना होती है ।
अन्य किसी
उनके द्वारा
(४०) हे सौम्य शिष्य ! यहाँ तक आचार्य के लक्षणों का यह संक्षिप्त वर्णन मेरे द्वारा किया गया है । हे धर्यवान् शिष्य ! अब तुम मुझसे संक्षेप में गच्छ के लक्षणों को सुनो।
( ४१-१०६ साधु स्वरूप वर्णन अधिकार )
( ४१ ) जो शास्त्रों का सम्यक् अर्थ रखने वाले, संसार से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले, आलस्य रहित व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले, सदैव अस्खलित चारित्र वाले तथा राग-द्वेष से मुक्त हैं, उन साधुओं का गुच्छ ही वास्तव में गच्छ है ।
(४२) ऐसे छद्मस्थ या केवली के सान्निध्य में विहार करना चाहिए. जिन्होंने आठ प्रकार के गवं के स्थानों (अर्थात् अहंकार) का नाश कर लिया हो, कषायों को शांत कर लिया हो तथा इन्द्रियों को वश में कर लिया हो ।
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गच्छायारपइण्णयं
जे 'अणहियपरमत्ये गोयमा ! संजए भवे । तम्हा ते विवज्जेज्जा दोगाईपंथदायगे ॥४३।। गीयत्थस्स वयणेणं विसं हालाहलं पिबे । निम्विकप्पो य भक्खेज्जा तक्खणा जं समुहवे ।।१४॥
परमत्थओ विसं णो तं, अमयरसायणं व तं । निविग्धं जन तं मारे, मओ बि सो अमयस्समो ॥४५॥
अगीयत्थस्स. वयणेणं अमयं पि न धुंटए। जेण नो तं भवे अमयं, जं अगीयत्यदेसियं ॥४६।। परमत्थो न तं अमयं, विसं हालाहलं खु तं । न तेण अजरामरो हुम्जा, तक्खणा निणं वए ॥४७॥ अगीयस्थ-कुसीलेहिं संगं तिविहेण वोसिरे । मुक्खमगस्सिमे विग्धे, पहम्मी तेणगे जहा ।।४।।
पज्जलियं हुयवहं द? निस्संको तत्थ पविसिउ। अत्ताणं निहिज्जाहि, नो कुसीलस्स अल्लिए ॥४९।। पजलंति जत्य धगधगधगस्स गुरुणा वि चोइए सीसे । राग-द्दोसेण वि अणुसएण, तं गोयम ! न गच्छं ॥५०॥
गच्छो महाणभावो, तत्थ वसंताण निज्जरा विउला । सारण-वारण-चोयणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥५१॥
गुरुणो छंदणवित्ती, सुविणीए जियपरीसहे धीरे ! ण वि पढे, न वि लढे, ण वि गारविए विहासौले ।।५२।
१. ताजेणधीय ब० ॥ २. अग्गीयस्स सं० पु०॥
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गम्छाचार प्रकोणक
(४३) हे गौतम ! जो साधु होकर भी परमार्थ के अध्ययन से रहित हैं,
दुर्गति मार्ग में डालने वाले ऐसे साधुओं का साथ छोड़ देना
चाहिए। (४४-४५) चाहे गीतार्थ के बचन घातक हलाहल विष के सदृश प्रतीत
होते हों तो भी उन्हें मिना किसी विमाने तकाल स्वीकार कर लेना चाहिए। वस्तुतः वे वचन विष नहीं, अपितु अमृत (रसायन) तुल्य होते हैं। निर्विघ्न वचन एक तो किसी को मारते नहीं और दूसरा यदि कोई उनसे मर भी जाये तो उसका मरण अमरण के समान होता है अर्थात् वह मरकर भी अमर हो
जाता है। (४६-४७) चाहे अगीतार्थ के वचन अमृत तुल्य प्रतीत हो तो भी उन्हें
स्वीकार नहीं करना चाहिए। वस्तुत: वे वचन अमृत नहीं, अपितु हलाहल विष की तरह हैं। अगीतार्थ के वचन ग्रहण करने से जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म
मरण से रहित नहीं हो पाता। (४४) अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का मन, वचन एवं कर्म से
परित्याग करें। उन्हें मोक्ष मार्ग में चोर एवं लुटेरों की तरह
बाधक समझें । (४९) जलती हुई अग्नि को देखकर निस्संकोच उसमें प्रविष्ट होकर
अपने शरीर को भस्म कर देना अच्छा है, किन्तु दुराचारी की
संगति करना अच्छा नहीं है। (५०) गुरु के द्वारा समझाने पर भी राग-द्वेष और अहंकार के कारण
जहाँ शिष्यों को क्रोधाग्नि अधिक भड़क उठती हो, हे गौतम !
वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है । (५१) हे भाग्यवान ! गच्छ में रहकर ही अधिकाधिक निर्जरा की जा
सकती है क्योंकि उसमें गुरुजनों द्वारा सारण (स्मरण कराने), वारण (निषेध करने) तथा चोदण (प्रेरणा देने) से (जीवन में)
दोष की ओर प्रवृत्ति नहीं होती है। (५२) सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनय पूर्वक पालन
करता है तथा धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है। वह न तो अभिमान करता है न लोभ करता है । न गर्व करता है और न ही वह विवाद करता है।
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५४
गच्छायारपइपणयं
खते दंते गुत्ते मुत्ते वरगमगामल्लीणे । दसविहसामायारी-आवस्सग-संजमुज्जुत्ते ॥५३।।
खर-फरुस-कश्कसाए अणिवाए निरगिराए । निमच्छण-निद्धाणमाईहि म पत्तात १४॥
जे एन अकित्तिजणए नाजसजणए नऽकज्जकारी य । न पवयणुड्डाहकरे कंठग्गयपाणसे से वि ।।५५।।
गुरुणा कज्जमकज्जे खर-कक्कस-दुट्ट-
निरगिराए। भणिए तहत्ति सीसा भणंति. तं गोयमा! गच्छं ॥५६।।
दूरझिय पत्ताइसु ममत्तए, निप्पिहे सरीरे वि । "जायमजायाहारे बायाली सेसणाकुसले ॥५७।।
तं विन रूव-रसत्थं, न य वणथं. न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं, अक्खोवंगं व वहणत्यं ।।५८।।
वेयण १ वेयावच्चे २ इरियदाए ३ य संजमाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छटुं पुण धम्मचिंताए ६ ॥५९ ।
जस्थ य जेट्ठ-कणिट्ठी जाणिज्जइ जेट्टविणय-बहुमाणा! दिवसेण वि जो जेट्ठो न हीलिज्ज इ. स गोयमा ! गच्छो ।।६।।
१. सीसे सं० पु० ॥ २. जत्तामताहारे ६० ॥ ३. 'तुष्णन जे० १० ।।
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पछाचारप्रकीर्णक
(५३) सुविनीत शिष्य क्षमाशील होता है, इन्द्रियों को जीतने वाला
होता है, स्व-पर की रक्षा करने वाला होता है और वैराग्य मार्ग में लीन रहता है। वह दस प्रकार की समाचारी का पालन करता है तथा आवश्यक क्रियाओं में संयम पूर्वक लगा
रहता है। (५४.५५) या पुत्पन्त काडोर, कर्क, अप्रिय, निष्ठुर तथा क्रूर
वचनों के द्वारा उपालम्भ देकर शिष्य को गच्छ से बाहर निकाल दे तो भी जो शिष्य द्वेष नहीं करते, प्राण कण्ठ में आ जाये अर्थात् मृत्यु समीप आ जाये तो भी निन्दा नहीं करते, अपयश नहीं फैलाते, कोई अकार्य अर्थात् निन्दित कर्म नहीं करते तथा जिनदेव-प्रणीत सिद्धान्त की आलोचना नहीं करते,
उन शिष्यों का गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । (५६) जहाँ गुरु के द्वारा अत्यन्त कठोर, अप्रिय, निष्ठुर एवं कर
वचनों के द्वारा जो भी कार्य-अकार्य कहा जाता है, शिष्य 'तहत्ति' ऐसा कहकर उसे स्वीकार करता है, हे गौतम ! उस
गच्छ को ही वास्तव में गच्छ कहते हैं। (५७-५८) सुविनीत शिष्य न केवल वस्त्र, पात्र आदि के प्रति ममता से
रहित होता है अपितु वह शरीर के प्रति भी अनासक्त होता है। वह आहार मिलने पर अथवा नहीं मिलने पर उसके बयालीस दोषों को टालने में समर्थ होता है। वह न रूप तथा रस के लिए, न सौन्दर्य के लिए और न ही अहंकार के लिए अपितु गाड़ी की धुरा के उपांग के समान चारित्र के भार को वहन
करने के लिए ही (शुद्ध एवं निर्दोष आहार) ग्रहण करता है। (५९) साध उपरोक्त छह कारणों से आहार ग्रहण करता है
(१) वेदना शान्त करने के लिए, (२) वैयावृत्य अर्थात गुरु की सेवा करने के लिए, (३) ईर्यासमिति का सम्यक रूप से पालन करने के लिए, (४) संयम-निर्वाह के लिए, (५) जीवन-निर्वाह
के लिए तथा (६) धर्म-ध्यान के लिए । (६०) जहाँ छोटे-बड़े का ध्यान रखा जाता हो, बड़ों को प्रणाम तथा
बहुमान दिया जाता हो, यहाँ तक कि जो एक दिन भी (दीक्षा पर्याय में) बड़ा हो, उसकी अवज्ञा नहीं की जाती हो, हे गौतम! वही गच्छ वास्तव में गच्छ है ।
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गच्छायारपइण्ण
जत्य य अज्जाकप्पं' पाणच्चाए वि रोरदुभिक्खे । न य परिभंजइ सहसा, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ।।६१।।
जत्थ य अज्जाहि समं थेरा वि न उल्लविति गयदसणा। : न शामिपी गंगोगाई तं गच्छं ॥६२।।
वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसम्गि अग्गि-विससरिसी। अज्जाणुचरो साहू लहइ अकित्ति खु अचिरेण ।।६३।।
थेरस्स तवस्सिस्स न बहुस्सुयस्स व पमाणभूयस्स । अज्जासंसग्गीए जणपणयं हवेज्जा हि ॥६४।। किं पुण तरुणो अवहस्सुओ य ज य वि हु विगिढतवचरणो। अज्जासंसगीए जणजेपणय न पावेज्जा ? ॥६५॥
जइ वि सयं थिरचित्तो तहा वि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवे व घयं विलिज्ज चित्तं खु अज्जाए ॥६६।।
सम्वत्थ इस्थिवग्गमि" अप्पमतो सया अवीसत्थो। नित्थरह बंभचेरं, तत्रिवरी मो न नित्थरइ ॥६७॥
सव्वत्थेसु विमुत्तो साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो । सो होइ अणप्पवसो अज्जाणं अणुधरतो उ१६८॥
खेलपडियमप्पाणं न तरइ जह मच्छिया विमोएउ। अज्जाणुचरो साहू न तरइ अप्पं विमोएउ ॥६९।।
साहुस्स' नरिथ लोए अज्जासरिसी हु बंधणे उवमा ।
धम्मेण सह ठतो' न य सरिसो जाणगसिलेसो' ५ ॥७॥ १. 'कायो जे० ।। २. परिभुज्जइ सब्जे ।। ३. जयति पू० ॥ ४. "सग्गल" सं० ।। ५. अस्थि पु०॥ ६. स्वतो वि विसं० ।। ७. अपवेसो सं० पु.।। ८. अव्या वि जे० सं० पु० ॥ ९. इयं गाथा गीतार्थं रदृष्ट्या सविशेष विचारणीयाऽस्ति । १०. उतो जे सं० ॥ ११. जाणयसिलेसा जे०॥ जाणअसिले सो जेर-मं० विना ॥
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गच्छाचार प्रकीर्णक
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(६१) भयंकर दुष्काल होने पर प्राण त्याग का कष्ट आ जाये फिर भी जहाँ साधु बिना विचारे साध्वी द्वारा लाया गया बहार ग्रहण नहीं करते हों, हे गौतम! उसी गच्छ को गच्छ कहते हैं । (६२) जहाँ दन्तविहीन वृद्ध साधु भी साध्वियों से वार्तालाप नहीं करते तथा स्त्रियों के अंगोपांगों को नहीं देखते हैं, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है ।
(६३) हे अप्रमत्त ( मुनिवरों ) ! साध्वियों के संसर्ग को
अग्नि तथा विष के समान वर्जित समझो। जो साधु इनका संसर्ग करता है, वह शीघ्र ही निन्दा को प्राप्त होता है । (६४-६५) वृद्ध. तपस्वी, बहुश्रुत तथा प्रमाणभूत साधु भी यदि आर्यिका का संसर्ग करता है तो उसकी निन्दा होती है तो फिर यदि युवा, उत्कृष्ट तपस्या नहीं करने वाला और अबहुश्रुत सोधु आर्यिका का संसर्ग करेगा तो वह क्यों नहीं लोगों में निन्दा का पात्र बनेगा ? अर्थात् उसकी निन्दा अवश्य होगी । (६६) यदि साधु स्थिर मन वाला है तो भी आर्यिका का
संसर्ग होने पर उसका मन उसी प्रकार पिघल जाता है ( विकृत हो जाता है) जिस प्रकार अग्नि के समीप होने पर घृत पिघल जाता है । (६७) सभी स्त्री वर्ग के प्रति जो व्यक्ति सदैव सजग रहता है और
उनका विश्वास नहीं करता है, वहीं ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता । (६८) समस्त सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्त साधु ही पूर्णतः स्वाधीन होता है किन्तु जो आर्यिकाओं के साथ संसर्ग में रहता है, वह निश्चय ही पराधीन होता है।
(६९) जिस प्रकार श्लेष्म में पड़ी हुई मक्खी अपने आपको निकाल पाने में असमर्थ होती है उसी प्रकार आर्यिकाओंके संसर्ग में रहने बाला साधु अपने आपको मुक्त करा पाने में असमर्थ होता है । ( ७० ) साधु के लिए संसार में आर्यिका के समान और कोई बन्धन नहीं है तथा धर्म में स्थित रहने के लिए ज्ञानी के सदृश अन्य कुछ नहीं है ।
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गच्छायारपइण्णर्य
वायामित्तण वि जत्थ भट्टचरियस्स निग्गहं विहिणा। बहुद्धि जुयस्सा ची कीरइ गुरुणा, तयं गच्छं ।।७१॥
जत्थ य सनिहि-उखड-आहहमाईण नामगहणे वि । पूई कम्मा भीया आउत्ता कप्प-तिप्पेसु ॥७२।। मनए नियसहावे हास दयविवज्जिए विगहमुक्के । असमंजसमकरिते गोयरभूमऽ8 विहति ॥७३ ।। मुणिणं नाणाभिग्गह-दुक्करपच्छित्तमणचरताणं । जायइ चित्तचमक्कं देविदाणं पि, तं गच्छे ।।७४।।
पुढवि-दग-अगणि'-वाऊ-वणप्फई तह तसाण विविहाणं । मरणते विन पीडा कीरइ मणसा, तयं गच्छं ॥७५।।
खजूरिपत्तभुजेण जो पमज्जे उबस्सयं । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोयमा ! ॥७६||
जत्थ य बाहिर पाणिय"बिमित पि गिम्हमाईस । तण्हासोसियपाणा' मरणे वि मुणी न गिण्हति ॥७७]1 इच्छिज्जा जत्थ सया बीयपएणावि फासुयं उदयं । आगमविहिणा निउणं. गोयम ! गच्छं तयं भणियं ।।७८॥ जत्य य सूल विसूइय अन्नयरे वा विचित्तमायके ।
उप्पन्ने जलणुज्जालणाइ न करेइ, तं गच्छं 11७९।। १. प-तप सं० ॥ २. वियरंति जे. पृ०७० ॥ ३. 'गणि-मास्यवाउवणस्सइ-तसाण विविहाणं पर वृ. | "गणि-मारूप-वण-फाई [लह] तसाण विविहाणं जे । गणि-मारुय-वाफइ-तसाण विनिहजीवाणं साम् ।। ४. बायर' जे॥ ५. पाणम्स बिमि सं० ॥ ६. पाणे सं० ॥ ७. करे मुणी, तयं ग' सं० पु० ॥
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गच्छाचार-प्रकीर्णक
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(७१) केवल वचन से भी जो चारित्र से ज्युत हो गया हो, फिर भले
हो वह अनेक लबिध (विशिष्ट अलौकिक शक्ति) सम्पन्न ही क्यों न हो, ऐसे साधु को भी जहाँ गुरू के द्वारा विधिपूर्वक
प्रायश्चित्त दिया जाता हो, वह छ ही वास्तव में गच्छ है।। (७२-७४) जिस गच्छ के साधु संचित, औद्देशिक, छीने हुए, दूषित
और अशुद्ध मिश्रित आहार को स्पर्श करने से भी भयभीत होते हों तथा आहार-विहार में उपयोगवान हों, मृदु हों, विनीत हों, हास-परिहास नहीं करने वाले हों, लडाई नहीं करने वाले हों, अनुचित कार्य नहीं करने वाले हों तथा भिक्षा योग्य क्षेत्र में ही विचरण करने वाले हों और विविध प्रकार के अभिग्रह एवं दुष्कर प्रायश्चित्त करने वाले हों, ऐसे साधुओं को देखकर देवेन्द्र
भी जहाँ आश्चर्यचकित रह जाते हों, वास्तव में यही गच्छ है । (७१) मृत्यु के उपस्थित होने पर भी जहाँ पृथ्वीकायिक, जलकायिक,
अग्नि कायिक, वायुकाधिक, वनस्पतिकायिक तथा अनेक प्रकार के त्रसकायिक जीवों को पोड़ा नहीं पहुँचाई जाती हो, वह गच्छ
ही वास्तव में गच्छ है। (७६) जो साधु खजूर के पत्तों अथवा मुंज (घास-विशेष) के तिनकों
से बनी हुई झाड़ से उपाश्रय की प्रमार्जना करता है, हे गौतम! यह अच्छी तरह से जान लो कि उस साधु का जीवों के प्रति
दया-भाव नहीं है। (७७-७८) ग्रीष्मादि ऋतु में प्राण बाहर निकल रहे हों अर्थात् मृत्यु
समीप हो तो भी जहाँ मुनि बूंद मात्र भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करते हों तथा अपवाद मार्ग में भी सदैव भागम विहित प्रासुक जल ही ग्रहण करते हों, हे गौतम ! उस गच्छ को ही वास्तव में
गच्छ कहते हैं। (७९) शूल, विशूचिका तथा अन्य कोई दुःसाध्य रोग उत्पन्न हो जाने
पर भी जहाँ साधु अग्निकाय का आरम्भ नहीं करते हों, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है ।
जैन परम्परा में मार्ग दो प्रकार के कहे गये हैं- (१) उत्सर्ग मार्ग और (२) अपनाद मार्ग । प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वत्र 'बीयपएण' का अर्थ द्वितीय पद अर्थात् द्वितीय मार्ग (अपवाद मार्ग) ही ब्रहण किया गया है ।
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गच्छायारपणयं
बीयपएणं सारूविगाइ-सढाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ।।८०॥
पुप्फाणं बीयाणं तयमाईण च विविहदम्वाणं । संघट्टण परियावण जत्थ न कुज्जा, तयं गच्छं ।।८।।
'हासं खेड्डा कंदप्पं नाहियवायं न कीरए जत्थ । धावण-डेवण-लंघण-ममकाराऽवण्ण उच्चरणं ८२।।
जत्थित्थीकरफरिसं अंतरिय कारणे वि उत्पन्ने । दिट्ठीविस-दित्तगी-विसं व वज्जिज्जए गच्छे ।।४।।
बालाए बुड्ढाए नत्तुय दुहियाए अहव भइणीए । न य कीरइ तणुफरिसं, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ।।८४।।
जत्थित्थीक रफरिसं लिंगी अरिहा वि सयमवि करेज्जा। तं निच्छयओ गोयम ! जाणेज्जा मूलगुणभट्ठ ॥८५।।
कीर बीयपएणं सुत्तमणियं न जरथ विहिणा उ । उप्पन्ने पुण कज्जे दिक्खाआयंकमाईए ॥८६॥
मूलगुणेहि विमुक्कं बहुगुणकलियं पि लद्धिसंपण्णं । उत्तमकुले वि जायं निद्धाडिज्जई, तयं गच्छं ।।८।।
जत्थ हिरण्ण-सुवण्णे धण-धणे कंस-तंब-फलिहाणं । सयणाण आसणाण 4 झुसिराणं चेव परिभोगो ।।८८॥ जत्थ य वारडिया तत्तडियाणं च तह य परिभोगो। मोत्तं सुक्किलवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि? ॥८९।।
१. जद्द हास खेड्ड कंदप्प नाहवायं सं० ।।
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गच्छाचार-प्रकीर्णक
(८०) जहाँ अपवाद मार्ग मे भी सार्मिक अथवा सद्गृहस्थ से भी
यतनापूर्वक ( सावधानीपूर्वक ) कार्य करवाये जाते हों, हे
गौतम ! उस गच्छ को ही वास्तव में गच्छ कहते हैं । (८१) जहाँ साधु पुष्प, बीज, तृण आदि विविध (सचित्त) द्रव्यों का न
तो स्पर्श करते हों और न ही उन्हें पीड़ा पहुँचाते हों, वास्तव
में वही गच्छ है। (८२-८३) जहाँ साधु हँसी-मजाक, कामबर्धक वचन अथवा नास्तिक
वचन नहीं बोलते हों, इधर-उधर दौड़ते नहीं हों, वेग से कूदते नहीं हों एवं किसी वस्तु को लाँघते नहीं हो और विशेष कारण उत्पन्न होने पर भी स्त्री के हाथ का स्पर्श करना भी दृष्टिविष सर्प, प्रज्वलित अग्नि एवं हलाहल विष की तरह वर्जित मानते
हों, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । (८४) जहाँ साधु द्वारा बालिका, वृद्धा, पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं
बहिन का भी स्पर्श नहीं किया जाता हो, है गौतम ! उस गच्छ
को ही वास्तव में गच्छ कहते हैं। {८५) जहाँ साधु वेशधारी आचार्य स्वयं ही स्त्री के हाथ का स्पर्श
करते हों तो हे गौतम ! ऐसे गच्छ को निश्चय ही मूलगुणों से भ्रष्ट जानो।
(८६-८७) जहाँ दीक्षा आदि के अवसर पर अथवा मारणान्तिक कष्ट
आदि परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर भी आगम अनुल्लिखित अपवादमार्ग का सेवन नहीं किया जाता हो तथा अनेक गुणों से युक्त, लब्धि-सम्पल और उत्तम कूल में उत्पन्न साधु को भी मूलगुणों से भ्रष्ट हो जाने पर जिस गच्छ से निकाल दिया
जाता हो, वास्तव में वही गच्छ है । (८८-८९) जहाँ साधु स्वर्ण-रजत, धन-धान्य, कासा, ताँबा एवं
स्फटिक अथवा छिद्रों वाली शय्या-- आसन्दी (कुर्सी) आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेत वस्त्रों को छोड़कर गेरूएँ अथवा रंगीन वस्त्र धारण करते हों तो उस गच्छ में क्या मर्यादा रह जाती है ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन है।
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गच्छायारपइण्णयं
जत्थ हिरण्ण-सुषण्ण हत्येण पराणगं पि नो छिप्पे । कारणसमप्पियं पि हु निमिस-खणखं पि, तं गच्छं ॥९०॥
जत्थ य अज्जालद्धं पडिगहमाई वि विविहमुवगरणं । परिभुज्जइ साहूहि, तं गोयम ! केरिसं गच्छं ? १९१।।
अइदुल्लह सज्ज बल-बुद्धिविवढणं पि पुट्टिकर। अज्जालद मुंबइ, का मेरा साथ गरमम्मि ? ॥१२॥
एगो एगिस्थिए सद्धि जत्थ चिटिज्ज गोयमा !। संजईए विसेसेणं निम्मेरं तं तु भासिमो ॥९३।।
दरचारित्तं मुत्तं आइज्ज मयहरं च गुणरासि । एक्को अज्झावेई, तमणायारं, न तं गच्छं ।।१४।।
घणगज्जिय'-यकुहियं-विज्जदुग्गेझगूढयियाओ। अज्जा अवारियाओ, इत्थीरज्ज्ञ, न तं गच्छं ।।१५।।
जस्थ समुद्देसकाले साहूर्ण मंडलीए अज्जाओ। गोयम ! ठवेति पाए, इत्थीरज्ज, न तं गच्छं ॥१६॥
अत्थ मुणीण कमाए जगडिज्जंता वि परकसाएहि । निच्छति समुछेउ सुनिविट्ठो पंगुलो चेव ॥९७१
_न उरति कसाए सुनो सुनोच, तब तक र
धम्मतरायभीए भीए संसारगम्भवसहीणं ।
न उईरंति कसाए मुणी मुणीणं, तयं गच्छं ।।९।। १. 'ब-कुहय-विज्जू गोयमा ! संजईए वि दुग्गिज्म' जे० ॥
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गच्छाचार-प्रकीर्णक
(९०) जहाँ साधु कारण उपस्थित होने पर भी दूसरों के स्वर्ण-रजत
आदि का क्षण भर के लिए भी हाथ से स्पर्श नहीं करते
हों, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । {९१) जहाँ कारण उपस्थित होने पर भी साध्वियों के द्वारा लाए हुए
पात्र आदि विविश्व उपकरणों का साधुओं के द्वारा उपभोग किया जाता हो, हे गोतम ! वह कैसा गच्छ है ? अर्थात् वह
गच्छ मर्यादाहीन है। (१२) जहाँ सानियों के द्वारा लाई हुई शारीरिक बल एवं बुद्धि को
बढ़ाने वाली, पुष्टिकर एवं अति दुर्लभ औषधियों का सेवन किया जाता हो तो उस गच्छ में क्या मर्यादा है ? अर्थात् वह
गच्छ मर्यादाहीन है। (९३) जहाँ अकेला साधु अकेली स्त्री या विशेष रूप से अकेली साध्वी
के साथ बैठता हो, हे गौतम ! उस गच्छ को मर्यादाहीन कहना
चाहिए। (९४) दृढ़ चारित्र वाला, अनासक्त, निराभिमानी आदि विविध गुणों
वाला अकेला साधु भी यदि अकेली स्त्री या साध्वी को पढ़ाता
है तो यह अनाचार है, ऐसा गच्छ वस्तुतः गच्छ नहीं है । (९५) जहाँ बादल के समान गर्जन करने वाली, अश्व के समान हिनः
हिनाने वाली, विद्युत के समान दुर्ग्राह्य और कपटपूर्ण हृदय वाली साध्वी पर अंकुश नहीं रखा जाता हो, वह गच्छ गच्छ
नहीं, अपितु स्त्री-राज्य है (९६) जहाँ भोजन के समय साधुओं की मण्डली में आर्यिका अपने
कदम रखती हो, हे गौतम ! वस्तुतः वह गच्छ नहीं, अपितु स्त्री
राज्य है। (९७) जहां दूसरों के कषायों के निमित्त से मुनि-गण के कषाय भाव
उसी प्रकार जागृत नहीं होते हैं, जैसे कि अच्छी प्रकार से बैठा
हुआ पंगु उठने की इच्छा नहीं करता है, वास्तव में वहीं गच्छ है। (९८ जहाँ धर्म साधना में विघ्न पड़ने के भय से अथवा संभार परि
भ्रमण के भय से साधु दूसरे साधुओं के कषायों को जागृत नहीं करते हैं, वह गछ ही वास्तव में गच्छ है ।
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गच्छारिपाइण्णय
कारणमकारणेणं अह कह वि मुणीण उहि कसाए। उदिए वि जत्थ रुहि खामिज्जहि जत्थ, तं गच्छं ।।१९।।
सोल-तव-दाण-भावण चविहधम्मतरायभयभीए । जत्थ बहू गोयत्थे, गोयम ! गच्छं तयं भणियं ॥१०॥
जत्थ य गोयम ! पंचण्ह कह वि सूणाण एक्कमवि होज्जा । तं गच्र्छ तिविहेणं वोसिरिय वएज्ज अपत्थ ।।१०१॥
सूणारंभपवत्तं गच्छं वेसुज्जलं न' सेविज्जा। जं चारित्तगुणेहिं तु उज्जलं तं तु सेविज्जा ॥१०२।।
जत्थ य मुणिणो कय-विक्कयाई कुब्वंति संजमुभट्ठा । तं गच्छं गुणसायर ! विसं व दूरं परिहरिज्जा ॥१०॥
आरंभेसु पसत्ता सिद्धंतपरम्मुहा विसयमिद्धा । मोतुं मुणिणो गोयम ! बसेज्ज मज्झे सुबिहियाणं ॥१०४॥
तम्हा सम्म निहालेउ गच्छे सम्मग्गपट्टियं । वसेज्जा पक्ख मासं वा जावज्जीवं तु गोयमा ! ॥१०५।।
खुड्डो वुड्ढो तहा सेहो जत्थ रक्खे उवस्सयं । तरुणो वा जत्थ एगागी, का मेरा तत्थ भासिमो? ।।१०६।।
१. न बासिज्जा जे० सं० पु० ।। २. दूरे जे || ३. खुड्डो का अहवा सहो पु० ३० ॥
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गच्छाचार-प्रकीर्णक
(९९) कारणवश या अकारण ही किसी भी तरह से कषाय उदित होने
पर जहाँ उनके उदय को रोक दिया जाता हो और उसके लिये
क्षमायाचना की जाती हो, वही गच्छ वस्तुतः गच्छ है । (१००) जिस गच्छ में शील, तप, दान और भावना रूप चार प्रकार
की धर्म साधना में आने वाले विनो। अन्तरायो ) के भय से भयभीत बहुत से गीतार्थ मुनि हों, हे गौतम ! उसी गच्छ को
गच्छ कहा जाता है । (१०१) है गौतम ! जहाँ मुनि पाँच प्रकार के वध-स्थानों अर्थात् ऊखल,
चक्की, चूल्हा, पनघट आदि में से किसी एक का भी सेवन करते हों तो उस गच्छ का त्रिविध रूप से अर्थात् मन, वचन और काया से त्यागकर अन्य (सद्गुणी) गच्छ में चले जाना
चाहिए। (१०२) जहाँ मुनि श्वेत वस्त्र धारण करके भी हिंसक प्रवृत्ति (भारम्भ
समारम्भ) में लगे रहते हों, उस गच्छ में नहीं रहना चाहिए किन्तु जहाँ मुनि उज्ज्वल चारित्रिक गुणों से सम्पन्न हों, उसी
गच्छ में रहना चाहिए। (१०३) जहाँ साधु क्रय-विक्रय आदि क्रियाएं करते हों एवं संयम से
भ्रष्ट हो चुके हों, हे गुणों के सागर गौतम ! उस गच्छ का
विष की तरह दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। (१०४) हे गौतम ! आरम्भ समारम्भ में प्रसक्त, जिन-वचन के विपरीत
कार्य करने वाले तथा काम-भोगों में गृद्ध साधुओं को त्यागकर
सदाचारी साधुओं के मध्य में ही रहना चाहिए। (१०५) इसलिये हे गौतम ! सन्मार्ग में प्रस्थित गच्छ का सम्यक प्रकार
से निरीक्षण कर उसमें पक्ष, मास अथवा जीवनपर्यन्त रहना
चाहिए । (१०६) जहाँ छोटा, वृद्ध अपवा नवदीक्षित साधु (शैक्ष्य) उपाश्रय का
रक्षक बना हुआ हो अथवा जहाँ जवान साध अकेला रहता हो, उस गच्छ की मर्यादा का क्या कहें ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन है।
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गच्छामारपइणणयं
[गा. १०७-१३४. अज्जासरूबवण्णणाहिगारो] जत्य य एगा खुड्डी एगा तरुणी उ रखए वसहि । गोयम ! तत्प विहारे का सुद्धी बंभचे रस्स ? ११०७॥
जत्थ य उघस्सयाओ बाहि' गच्छे दुहत्यमेत पि । एगा रत्ति समणी, का मेरा तत्थ गच्छस्स ? ॥१०८॥
जस्थ य एगा समणी एगो समणो य जंपए 'सोम !। नियबंधुणा वि सद्धि, तं गच्छं गच्छगुणहीण ॥१०॥
जत्य जयार-मयारं समणी जंप गिहस्थपञ्चवखे । मानवं संसार भरला पनि अप्पाणं ॥११॥
जस्थ य गिहत्यभासाहिं' भासए अज्जिया सुरुट्ठा वि । तं गच्छं गुणसायर ! समणगुणविवज्जियं जाण ॥१११।।
गणिगोयम ! जा उचियं सेयं वत्थं विवज्जि । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा वियाहिया ।।११।।
सीवणं तुम्नणं भरणं गिहत्याणं तु जा करे। तिल्ल उभ्वट्टणं वा वि अप्पणो य परस्स य ॥११३।।
गच्छइ सविलासगई सयणी यं तूलिय सबिब्बोयं । उन्बट्टेड सरीरं सिणाणमाईणि जा कुणइ ।।११४॥
गेहेसु गिहत्याणं गंतूण कहा कहेइ काहीया । तरुणाई अहिवडते अणुजाणे, सा इ पहिणीया।।११५॥
माउ पु.॥
१. राई ग सा० ॥ २. सोम्म ! सा० पु० ॥ ३. भासाइ मा ४. जाणे जा उ सा पडणी' सा० पु. |
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गच्छाचार-प्रकीर्णक ( १०७-१३४ साध्वी स्वरूप वर्णन अधिकार ) (१०७) जहाँ क्षुल्लिका अथवा तरुण साध्वी उपाश्रय में अकेली रहती
हो, हे गौतम ! उस बिहार (उपाश्रय) में ब्रह्मचर्य की शुद्धि की
क्या अपेक्षा की जा सकती है? (१०८) जहां रात्रि के समय में अकेली साध्वी दो हाथ भी उपाश्रय से
बाहर जाती हो, उस गच्छ की क्या मर्यादा है ? अर्थात वह
गच्छ मर्यादाहीन है। (१०९) जहाँ अकेली साध्वी अकेले साधु से, चाहे वह उसका सगा
भाई ही क्यों न हो, अकेले में वार्तालाप करती हो तो हे सौम्य
गौतम ! वह गच्छ गच्छ के गुणों से रहित है। ११०) यदि साम्बी गृहस्थ के साथ कारनकार ६ जश्लील
वचन बोलती है तो वह साध्वी अपनी आत्मा को चतुर्गति
संसार-समुद्र में अवश्य गिरा देती है। (१११) जहां साध्वी अति सष्ट होकर गृहस्थ की भाषा अर्थात् सावध
भाषा बोलती हो, हे गुणों के सागर गौतम ! उस गच्छ को
साधुता के गुणों से रहित जानों। (११२) हे गणि गौतम ! जो साध्वी उचित श्वेत वस्त्रों को त्यागकर
विविध प्रकार के रंगीन वस्त्रों को धारण करती हो, वह
वास्तव में साध्वी नहीं कही जा सकती है। (११३-११५) जो साध्वी गृहस्थों के फटे हुए वस्त्रों को सीती हो,
उनके वस्त्रों में बेल-बूटा आदि करती हो, उनमें कई आदि भरती हो, अपने शरीर पर अथवा दूसरों के शरीर पर तेलमर्दन करती हो, विलासयुक्त गति से चलती हो, रूई से भरे हुए गद्दे पर शयन करती ही, स्नान आदि के द्वारा अपने शरीर को गारित करती हो, गृहस्थों के घरों में जाकर कथा कहती हो तथा युवा पुरुषों को बार-बार आने के लिए आमन्त्रित करती हो, वह साध्वी जिनशासन की मर्यादा के विपरीत आचरण करने वाली है।
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२८
मच्छायारपण्णयं
बुड्डाणं तरुणाणं रति अज्जा कहेइ जा धम्मं । सा गणिणी गुणसायर ! पडणीया होइ गच्छस्स ।। ११६ ।।
जत्थ य समणीण मसंखडाई गच्छमि नेव जायंति । तं गच्छ गच्छवरं निहत्यभासाओ तो जत्थ ॥११७॥
जो जत्तो वा जाओ नाऽऽलोयइ दिवस पक्खियं यावि सच्छंदा समणीओ मयहरियाए न ठायंति ॥ ११८ ॥
विटलियाणि पतंजति, गिलाणसेहीण नेय तप्पंति । अणगाढे आगाढं करेंति, आगादि अणगाढं ॥ ११९ ॥
अजयणाए पकुर्व्वति पाहुणगाण अवच्छला । चित्तलयाणि य सेवंति, चित्ता रहरणे तहा ||१२||
इ-विभमाइएहि आगार विगार तह पगासिति । जहर वुड्ढाणवि मोहो समुईरद्द, किं नु तरुणाणं ? ॥१२१॥
बहुसो उच्छोलिती मुह नयणे हत्य-पाय कक्खाओ । fruts * रागमंडल सोइंदिय तह य कब्बट्टे ॥१२२॥
५.
जत्य य बेरी तरुणी थेरी तरुणी य अंतरे सुयइ । गोयम ! तं गच्छवरं वरनाण चरित्तआहारं ।।१२३||
धोति कंठियाओ पोइति य तह य दिति पोत्ताणि । गिहकज्जचितगीओ, न हु अज्जा गोयमा ! ताओ || १२४||
१. दाद व सब गम सं० ॥। २. नेव तिप्पति सा० ॥ ३ जन कमढगाण मोहो [सं० । जह कब्ज ( प्प ) दृगाण मोहो जे० ॥ ४. गिन्हव रामण मंडभोईति तह सं० ।। ५. कप्पट्ठे पु० । कप्पस्य सं० ॥
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गच्छाचार-प्रकीर्णक ११६) हे गुणो के सागर गोतम ! यदि साध्वी प्रमुखा भी रात्रि के
समय वृद्धों तथा युवाओं को धर्मकथा कहती है तो वह साध्वी
गच्छ की मर्यादा के विपरीत आचरण करने वाली है। (११७) जहाँ साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो, गृहस्यों जैसी
भाषा नहीं बोली जाती हो, उसी गच्छ को श्रेष्ठ गच्छ
कहते हैं। (११८-१२२) स्वच्छन्दाचारी साध्वियां जहाँ और जैसे लगे हुए
अतिचारों की देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक अथवा सांवत्सरिक आलोचना नहीं करती हैं, वे अपनी साध्वी प्रमुखा की आशा में नहीं रहती हैं, वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, बीमार एवं नवदीक्षित साध्वियों की सेवा नहीं करती हैं, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण इत्यादि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं और जो नहीं करने योग्य कार्य हैं उन्हें वे करती हैं, प्रत्येक क्रिया यतनापूर्वक नहीं करती हैं, अतिथि साध्वियों से स्नेह नहीं रखती हैं, रंगीन वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अपनी गति तथा हावभाव इस प्रकार प्रकट करती हैं जिससे बद्धों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाते हों तो फिर युवाओं का तो कहना ही क्या ? अर्थात् जो पुरुषों के मन में विकार उत्पन्न करती हों, अपने मुंह, हाथ-पाँव तथा कांखों को बार बार धोती हों, नानाप्रकार से राग-रागिनियों में रस लेती हों, अपना मन बहलाने के लिए छोटे बच्चों को भोजन कराती हों, ऐसा गच्छ
निन्दनीय है। (१२३) जहाँ वृद्धा साध्वी फिर युवा साध्वी, फिर वृद्धा साध्वी और
उसके पश्चात् फिर युबा साध्वी इस क्रम से साध्वियाँ सोती हों, हे गौतम ! वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है और ऐसा
गच्छ सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्रका आधार होता है। (१९४) जो साध्वियाँ कंठ आदि अंगों को धोती हों, (गृहस्थों के लिए)
मोतियों की माला पिरोती हों, गृहस्थों को वस्त्र देती हों तथा गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में चिन्तित रहती हों, हे गौतम ! वास्तव में वे साध्वियों नहीं हैं ।
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गच्छायारपणयं
'खर-घोडाइट्ठाणे वयंति, ते वा वि तत्थ वच्चति । वेसत्थीसंसगी उस्सयाओ समीवम्मि ।।१२५।।
'छक्कायमुक्कजोगा, धम्मकहा विगह पेसण गिहीणं । गिहिनिस्सेज्ज बाहिति संथवं तह करतीओ ॥१६॥
समा सीस-पडिच्छीणं चोयणासु अणालसा । गणिणी गुणसंपण्णा 'पसत्थपरिसागुणा ।1१२७।।
संविग्गा भीयपरिसा य उरगदंडा य कारणे । सज्झाय-ज्झाणजुत्ता य संगहे य विसारया ॥१२८।।
अत्युत्तर-पडि उत्तरपडिया अज्जाओ साहुणा सद्धि । पलवंति सुद्धा बी, गोयम ! कि तेण गच्छेण ? ||१२९||
जत्थ य गच्छे गोयम ! उप्पणे कारणम्मि अज्जाओ। गणिणीपिट्टिठियाओ भासंती म उयस देणं ।।१३।।
माऊए दुहियाए सुहाए अहव 'भइणिमाईण । जत्थ न अज्जा अक्खाइ मत्तिविभेयं, तयं गच्छं ॥१३॥
१. थलत्री सं जे पु० ।। २. सज्झायम सं० पु० सा० ।। ३. 'त्यपुरि" सं० पु० सा० ॥ ४. भयणि जे० ।।
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गच्छाचार-प्रकीर्णक (१२५) जहाँ घोड़े-गधे आदि पशु रहते हों अथवा जहां वे मल-मूत्र का
विसर्जन करते हों तथा जिस उपाश्रय के समीप वेश्या के संसर्ग के आकांक्षी पुरुषों का आवागमन होता हो, वहां रहने वाली
साध्वी वास्तव में साध्वी नहीं है । (१२६, जो साध्विर्या षट्जीवनिकाय की हिंसा के प्रति उत्सुक रहती
हों, धर्मकथा के स्थान पर विकथा कहती हों, गृहस्थों को आदेशित करती हों, गृहस्थों के पलंग, शय्यादि का उपभोग करती हों, उनसे अति परिचय रखती हों, हे गौतम ! वास्तव
में वे साध्वियों नहीं हैं। (१२७-१२८) अपनी शिष्याओं तथा प्रतिच्छिकाओं अर्थात् अध्ययन
आदि के लिए उसके सान्निध्य में रहने वाली अन्य साध्वियों की शिष्याओं के प्रति समभाव रखने वाली, प्रेरणा देने में आलस्य नहीं करने वाली, गणिणी के गुणों से सम्पन्न, सत्पुरुषों का अनुसरण करने वाली, कारण उपस्थित होने पर कठोर दण्ड देने वाली, स्वाध्याय और ध्यान से युक्त रहने वाली, नवदीक्षिताओं और अन्य साध्वियों को आश्रय देने वाली तथा उनके लिए वस्त्र-पात्र आदि संयमोंपकरणों का संग्रह करने में कुशल साध्वी गणिणी (साध्वी प्रमुखा) बनने
योग्य है। (१२९) जहाँ साध्वियां साधु के साथ वाद-विवाद करती हों तथा
अत्यन्त आवेश में आकर बकवास करती हों, है गौतम ! उस गच्छ से क्या लाभ ? अर्थात् उस गच्छ में रहने से कोई
लाभ नहीं है। (१३०) जहाँ कारण उत्पन्न होने पर भी साध्वियां साध्वी प्रमुखा
(गणिणी) के पीछे रहकर ही गीतार्थ साधु से मृदु शब्दों के
द्वारा बोलती हों, हे गौतम ! वास्तव में वहीं गच्छ है । (१३१) जहाँ साध्वियां यह मेरी माता है, यह मेरी पुत्री है, यह मेरी
पुत्रवधू है अथवा मैं इसकी बहिन हूँ, मैं इसकी माता हूँ- ऐसा वचन-व्यवहार नहीं करती हों, वास्तव में वही गच्छ है ।
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३२
गच्छायारणयं
दंसणयार कुणई, चरितनासं जणेइ मिच्छतं । दोह वि वग्गाणऽज्जा विहारमेयं करेमाणी' | १३२||
तम्मूलं संसारं जणे अज्जा वि गोयमा ! नूणं । तम्हा धम्मुवएस मोतुं अन्नं न भासिज्जा ॥१३३॥
मासे मासे उजा अज्जा एगसित्थेण पारए । कलहइ गिहत्यभासाहि, सम्यं तीए निरत्ययं ॥ १३४ ॥
(गा. १३५ - १३७. गंथसमत्ती ) महानिसीह कप्पा बवहाराओ तब य । साहु साहृणिमट्टाए गच्छायारं समुद्धियं ॥ १३५ ॥
परंतु साहुणो एवं असज्जमायं विवज्जिउं । उत्तमं सुयनिस्संद गच्छायारं सुउत्तमं ॥ १३६ ॥
गच्छायारं सुणित्ताणं पढित्ता भिक्खु भिक्खुणी । *कुणंतु जं जहा भणियं इच्छंता हियमप्पणो ॥ १३७॥
|| गच्छायारं सम्मत्तं ॥
१. कमाणी जे० ॥ २. जाणंतु जे० ॥ ३. इति गच्छामा रपइन्तं जे० । गच्छायारणयं सम्मत्तं सा० ॥
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गह चार-प्रकीर्णक
३३
(१३२) जो साली दर्शन में अतिचार लगाती हो, चारित्र भंग करती
हो, मिथ्यात्व को बढ़ाती हो तथा जो दोनो पक्षों अर्थात् अपनी एवं साधु वर्ग की आचार-मर्यादा का उल्लघन करती हो,
वास्तव में वह साध्वी नहीं है । (१३३॥ हे गौतम ! साध्वियाँ संसार वृद्धि का कारण बन सकती हैं,
इसलिए साध्वियों से धर्मोपदेश को छोड़कर अन्य बात नहीं
करनी चाहिए। (१३४) जो साहिद एक-एक माजी ता पारो पारण की
मात्र एक ग्रास ही ग्रहण करती हों, किन्तु यदि वे गृहस्थों की भाषा द्वारा अर्थात् सावध वचनों से कलह कराती हों तो उनकी तपस्या निरर्थक हो जाती है।
(१३५-१३७ ग्रन्थ समाप्त ) (१३५-१३६) महानिशीथ, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र और इसी तरह के
अन्य ग्रन्थों से साधु-साध्वियों के लिए यह 'गच्छाचार' (प्रकीर्णक) नामक ग्रन्थ समुद्धृत किया गया है। अतः साधु.. साध्वियों उत्तम श्रुत के सार रूप इस अति उत्तम गच्छाचार
(प्रकीर्णक) को अस्वाध्याय काल छोड़कर पढ़ें। (१३३) अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले साधु साध्वियां इस
'गच्छाचार प्रकीर्णक' को सुनकर अथवा पढ़कर इसमें जैसा कहा गया है, वैसा ही करें।
[गच्छाचार प्रकीर्णक समाप्त
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परिशिष्ट
गच्छाचार प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका
क्रमांक
गाथा
寶
इदुल्ल हसज्ज
अगीयत्थ-कुसीले हि अगtयस्थस्स वयणेणं
अजयणाम् पकुब्वंति अत्थेगे गोयमा ! पाणी
अपरिसानी सम्म
आरंभेसु पत्ता
इ
इच्छिज्ज जन्य सया
उ
उज्जमं सव्वधामेसु
उम्मग्गठिए
उम्मम्गठिओ
उम्मरसं पट्टियाण
ए
एगो एगिरथीए सद्धि
श्रो
ओसन्ने विहारे
क
कि
कारणमकारणं अह पुण तरुणो अबस्सुभ कीरइ बीयपणं
गाथा
कुल गाम नगर रज्जं
स्व
स्वज्जूरिपत्तम् जेण खर- घोडाइङ्काणे
४६
१२०
ख़र-फरूस-कक्कसाए
२
संते दंले गुत्ते
२२ खुड्डो बुडो तहा सेहो खेलपडियमप्पाणं न तर
१०४
९२
४८
७८
५
२९
३०
३१
९३
३८
९९
६५
८६
इ-विभमाइएहि
गच्छ सविलास गई
गच्छायारं सुणित्ताणं
गच्छो महाणुभावो
गणिगोयम ! जा उचियं
गीयत्थस्स वगणेणं गोयस्थ जे सुसंविग्गे
गुरुणा कज्जमकज्जे
गुरुण छंदणुवित्ती
सुगियाणं
घ
धज्जिय कुहियं चिज्जू
छक्का मुक्कजोगा छत्तीसगुण समन्नागएण
क्रमांक
२४
७६
१२५
५४
५३
१०६
६९
૧૨૧
११४
१३७
५१
११२
४४
४१
५६
५२
११५
९५
१२६
१२
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परिशिष्ट
गाथा
क्रमांक
१७
क्रमांक गाथा
जीहाए विलिहतो ३३ जे अणहियपरमत्थे ६६ जे यन अकित्तिजणाए ११० ___ जो उपमायदोसणं ९७ जो जसो वा जाओ
३९
११८
१३३
१०५
१०७
तम्मूलं संसार जणेइ तम्हा निउण निहाल तम्ही सम्भं निहाले तं पि न रुव-रसत्थं वित्वय रसमो सूरी सम्म नीयाणागकाले केई तुम्हारिसा वि मुणिवर !
१०१
१३०
१११
१०१
जइ वि न समकं का जइ नि सयं थिरचितो जस्थ जयार-मयार जत्थ मुणीण कसाए जत्थ य अज्जाकप्पं जत्य य अज्जालद्ध जत्य य अज्जाहि सम जत्थ व उबस्सयाओ जत्थ य एगा खुड्डी जस्थ य एगा समणी जत्थ य गच्छे मोयम ! जस्थ य गिहत्य भासाहि जस्थ य गोवम ! पंचण्ड जत्य य जेठ-कणिको जत्थ य थेरी तरुणी जत्य य बाहिरपाणिय जस्थ य मुणिणो जस्थ य धारडिया जत्थ य सन्निहि जत्थ य समणीगमसंखडाई जस्य य सूल विसूइय जत्य समुढेसकाल जत्थ हिरण्य-सुत्रपणं हत्थेण जस्थ हिरण-सुधाणे जत्यिस्थीकर फारिस अंतरिय जत्थिनीकरफरिस लिंगी जत्युतर-पडिजत्तरखड़िया जह सुकुसलो त्रि वेज्जो जामवंजाम दिण पक्वं
१२३ थेरस्स तवस्सिस्स
६४
१३२
७२ ११७
दढचारित्तं मुत्तं सणझ्यार कुणई दूझिय पत्ताइस देसं खेत्तं तु जाणित्ता
५७
८८
धम्मंतरायभीए भीए धोइति कठिनाओ
१२९ नमिऊण महावीर १३ नाणम्मि दंसम्मि ३ निद्ववियअट्ठमयाणे
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________________ गच्छायापाग गाथा क्रमांक गाथा क्रमांक 63 71 119 पज्ञलंति जत्थ धगधग पज्जलिय पर पहंतु साहुणो एवं परमत्यओ न त अमयं परमत्थओ विसं णो नं पिंडं उहि सेज्ज पुलवि-दग-अगणि पुकाणं बीग्राणं 50 बजेह अप्पमता। मिग विमथ 136 विदलियाणि पटजति विहिणा जो उ चोएड वीणि तु जीवरस बुड्डाणं तरुणाणं रत्ति वेषण वेयावच्चे 4.7 21 38 बहुसो उच्छोलिती बालाए बुलाए ननुत्र बालाणं जो उ सीमागं बीयपर सारु बिगाइ 127 भट्ठयारो सूरी भयवं ! केहि लिंगेहि भूए अतिथ भविस्संति 126 मच्छंदवारि दुस्सीलं 84 सरइ भवति अणवेक्खयाइ स एव भव्व सत्ताण समा सीस-पडिकछीर्ण मम्मग्गमग्गसंपठ्ठियाण सव्यत्य इस्थिवागम्मि सव्वत्वेसु त्रिमुत्तो साहू संखेदेणं मए सोम्म ! संगोत्रग्गरं विहिणा संविग्गा भीयपरिसा साहुस्स नस्थि लोए 135 सीमायेइ विहारं 131 सोल-तव-दाण-भावण 134 सीवणं तुन्नणं भरणं सीसा वि वेरिओ सुद्धं सुसाहुमग 11 सूणारंभपवत्तं गच्छ 15 128 . a मए निषसहावे महानिसीहकप्पाआ माकए दुझिाए मासे मासे उ जा अज्जा मुणिणं नाणाभिग्गह मूलगुणहि विमुक्त मूलत्तरगृणभई मेही आलंगणं खन 100 113 18 102 लीलाइसमागस्स 4 हास खड्डा कंदप्पं