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भूमिका
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है. वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है। यद्यपि जैन परम्परा में आगम न तो वेदों के समान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाइबिल और कुरान के समान किसी पंगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश है, अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाश पाया था । यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों के प्रवक्ता तीर्थकरों को माना जाता है. किन्तु हमें यह मान रवनः शाह दीयंदा मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं। जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रंथ का निर्माण गणघर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते हैं।
जैन-परम्परा हिन्दू-परम्परा के समान शब्द पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है। उसकी दष्टि में शब्द नहीं, अर्थ ( तात्पर्य ) ही प्रधान है। शब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन-परम्परा के आगम ग्रंथों में यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वे वेदों के समान शब्द रूप में अक्षुण्ण नहीं रह सके। यही कारण है कि आगे चलकर जंन आगम साहित्य अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है, अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है । शौरसेनी आगम-साहित्य का विकास भी अद्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रंथों के आधार पर हुआ है । अत: अर्द्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है। यद्यपि यह अर्द्धमागधी १. अत्यं भासइ अरहा मुत्तं गंथंति गणहा"-आवश्यकनियुक्ति
गाथा १२ ।