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गच्छाचारपइणणयं आगम-साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् ९८० या ९९३ को बल भी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में अनेक बार संकलित और सम्पादित होता रहा है । अतः इस अवधि में उस में कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी हुआ है और उसका कुछ अंश काल कवलित भी हो गया है,।
प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम-साहित्य अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दी विभागों में विभाजित किया जाता था। अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रंथ समाहित किये जाते थे, जो श्रुत केवली एवं पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचित माने जाते थे। पुनः अंगबाह्य आगम-साहित्य को नन्दीसूत्र में आवश्यक
और आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। साजनक सिविता के भी : लालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये गये हैं । नन्दीसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है
श्रुत ( आगम)'
अंगप्रविष्ट
अंगवार
आवश्यक
भावश्यक व्यतिरिक्त
आचारांग सूत्रकृतांग स्थानाज समवायाज व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशांग अन्तकृतदशांग अनुत्तरोपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्र दृष्टिवाद
सामायिक चतुविशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान
१. नन्दीसूत्र ...सं० मुनि मधुकर, सूत्र ७३, ७९-८१ ।