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________________ १६ गच्छायारपइणयं . तो ९वीं शताब्दी के बाद के ही मिलते हैं।" इस आधार पर हम निश्चित रूप से इतना तो कह ही सकते हैं कि 'गच्छ' शब्द का मुनियों के समूह अर्थ में प्रयोग छठीं शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ है । अभिलेखीय साक्ष्य की दृष्टि से प्राचीनतम अभिलेख वि० सं० १०११ अर्थात् ईस्वी सन् ९५४ का उपलब्ध होता है जिसमें 'बृहद्गच्छ' का नामोल्लेख हुआ है। साहित्यिक साक्ष्य के रूप में 'गच्छ' शब्द का इस अर्थ में उल्लेख हमें सर्वप्रथम ओघनिर्मुक्ति ( लगभग ६ठीं - ७वीं शताब्दी) में मिलता है जहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार समुद्र में स्थित समुद्र की लहरों के थपेड़ों को सहन नहीं करने वाली सुखाभिलाषी मछली किनारे चली जाती है और मृत्यु प्राप्त करती है उसी प्रकार गच्छ रूपी समुद्र में स्थित सुखाभिलाषी साधक भी गुरुजनों की प्रेरणा आदि को त्याग कर गच्छ से बाहर चला जाता है तो वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होता है । यद्यपि ओघनिर्मुक्ति का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में उल्लिखित दस नियुक्तियों में नहीं है क्योंकि सामान्यतः यह माना जाता है कि ओघनियुक्ति आवश्यक निर्मुक्ति का ही एक विभाग है, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ओघनिर्मुक्ति की सभी गायायें आवश्यक नियुक्ति में रही हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता । हमारी दृष्टि में ओधनिर्मुक्ति को अधिकांश गाथायें आवश्यक मूल भाष्य और विशेषावश्यक भाष्य के रचनाकाल के मध्य कभी निर्मित हुई हैं । १. (क) जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक १४३ (ख) प्रतिष्ठा लेख संग्रह लेख क्रमांक ३४, ३८, ३९, १३३, ८३३ २. "संवत् १०११ बृहद्गच्छीय श्री परमानन्दमुरि शिष्य श्री मक्षदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं." दोलन मित्र श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, लेख .. क्रमांक ३३१ ३. जल सागरंमि मीणा संग्खो सागरम्य अहंता । निति तु सुहामी निमित्ता वितरति ॥ एवं गच्छस मुद्दे सारवीहि चोइया संता । निनि त सुहकामी मीणा व जहा विणस्मंति || --आधनियुक्ति, गाथा ११६-११७
SR No.090171
Book TitleAgam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year
Total Pages68
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Ethics
File Size1 MB
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