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भूमिका
ओपनियुक्ति के पश्चात् 'गच्छ' का उल्लेख हमें सर्वप्रथम हरिभद्र के पंचवस्तु (6वीं शताब्दी) में मिलता है, जहा न केवल पच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह विशेष के लिए हुआ है, अपितु उसमें 'गच्छ' किसे कहते हैं ? यह भी स्पष्ट किया गया है। हरिभद्रसूरि के अनुसार एक गुरु के शिष्यों का समूह गच्छ कहलाता है। वैसे शाब्दिक दृष्टि से 'गच्छ' शब्द का अर्थ एक साथ विहार आदि करने वाले मुनियों के समूह से किया जाता है और यह भी निश्चित है कि इस अर्थ में 'गच्छ' शब्द का प्रचलन वीं शताब्दी के बाद ही कभी प्रारम्भ हुआ होगा, क्योंकि इससे पूर्व का ऐसा कोई भी अभिलेखीय अथवा साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसमें 'गच्छ' शब्द का प्रयोग मुनियों के समूह के लिए हआ हो। प्राचीन काल में तो मुनि संघ के वर्गीकरण के लिए गण, शाख, कुल और अन्वय के ही उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली के अन्तिम भाग में वीर निर्वाण के लगभग ६०० वर्ष पश्चात् निवृत्तिकुल, चन्द्रकुल, विद्याधर कुल और नागेन्द्रकुल -इन चार कुलों के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। इन्हीं चार कुलों से निवृत्ति गच्छ, चन्द्र गच्छ आदि गच्छ निकले ! इस प्रकार प्राचीन काल में जिन्हें 'कुल' कहा जाता था वे ही आगे चलकर 'गच्छ' नाम से अभिहित किये जाने लगे। जहाँ प्राचीन समय में 'गच्छ' शब्द एक साय विहार (गमन) करने वाले मुनियों के समूह का सूचक था वहाँ आगे चलकर वह एक गुरु की शिष्य परम्परा का सूचक बन गया। इस प्रकार शनैः शनैः 'गच्छ' शब्द ने 'कुल' का स्थान ग्रहण कर लिया। यद्यपि ८वीं-९वीं शताब्दी तक 'गण', 'शाखा' और 'कुल' याब्दों के प्रयोग प्रचलन में रहे, किन्तु धीरे-धीरे 'गच्छ' शब्द का अर्थ व्यापक हो गया और मण', 'शाखा' तथा 'कुल' शब्द गौण हो गये। आज भी चाहे श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिष्ठा लेखों में 'गण', 'शाखा' और 'कुल' शब्दों का उल्लेख होता हो, किन्तु व्यवहार में तो 'गच्छ' शब्द का ही प्रचलन है।
१. मुरुपरिवारो गच्छो तत्ध वमंतापा निज्जरा विउला ।
निणयाओं तह गारणमाईहि न दोमपहिवसी ।। -पंचवस्तु (हरिभद्रभूरि), प्रका० श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, गाथा ६९६