________________
१८
गच्छायारपइणय 'गच्छ' शब्द का मुनि समूह के अर्थ में प्रयोग प्रद्यपि ६वीं-७वीं शताब्दी से मिलने लगता है। किन्तु स्पष्ट रूप से गच्छों का आविर्भाव १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध से ही माना जा सकता है। बृहद्गच्छ, संडेरगच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों का प्रादुर्भाव १०वीं-११वीं शताब्दी के लगभग ही हुआ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में हमें मुख्य रूप से अच्छे गच्छ में निवास करने से क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं, इसकी चर्चा के साथ-साथ अच्छे गच्छ और बुरे गच्छ के आचार की पहचान भी कराई गई है। इसमें यह बताया गया है कि जो गच्छ अपने साधु-साध्वियों के आचार एवं क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण रखता है. वहीं गच्छ सुगच्छ है और ऐसा गच्छ ही साधक के निवास करने योग्य है । प्रस्तुत ग्रंथ में इस बात पर भी विस्तार से चर्चा हई है कि अच्छे गच्छ के साधु-साध्वियों का आचार कैसा होता है ? इसी चर्चा के सन्दर्भ में प्रस्तुत नन्ध में शिथिलाचारी और स्वच्छन्द आचार्य की पर्याप्त रूप से समालोचना भी की गई है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जैन परम्पग में भगवान महावीर ने एक कठोर आचार परम्परा की व्यवस्था दी थी किन्त कालक्रम में इस कठोर आचार व्यवस्था में शिथिलाचार और सुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ किन्तु समय-समय पर जैन आचार्यों ने इस स्वच्छन्द और सुविधाबादी आचार व्यवस्था का विरोध करके आगमोक्त प्राचीन आचार व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न किया। गच्छाचार भी एक ऐसा ही ग्रन्थ है जो सुविधाबादी और स्वच्छन्द आचार व्यवस्था के स्थान पर आगमोक्त आचार व्यवस्था का निरूपण करता है। गच्छाचार प्रकीर्णक के सम्पादन में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियां :
हमने प्रस्तुत संस्करण का मूलपाठ मुनि श्री पुण्य विजयजी द्वारा सम्पादित एवं श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णयसुत्ताई' ग्रन्थ से लिया है। मुनि श्री पुषय विजयजी ने इस ग्रन्थ के पाठ निर्धारण में निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग किया है१. सा० : आचार्य श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी द्वारा संपादित एवं
वर्ष १९२७ में आगमोदय समिति, सूरत द्वारा प्रकाशित प्रति ।