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भूमिका
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यह है कि गच्छाचार नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के परवर्ती किन्तु विधिमाप्रपा से पूर्ववर्ती है ।
गच्छाचार प्रकीर्णक
गच्छाचार प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है । 'गच्छाचार' शब्द 'गच्छ' और 'आचार'-- इन दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रस्तुत प्रकीर्णक के संबंध में विचार करने के लिए हमें 'गच्छ' शब्द के इतिहास पर भी कुछ विचार करना होगा । यद्यपि वर्तमान काल में जैन सम्प्रदायों के मुनि संघों का वर्गीकरण गच्छों के आधार पर होता है जैसे - खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायचन्द्रगच्छ आदि । किन्तु गच्छों के रूप में वर्गीकरण की यह शैली अति प्राचीन नहीं है । प्राचीनकाल में हमें निर्ग्रन्ध संघों के विभिन्न गणों में विभाजित होने की सूचना मिलती है ।
समवायांगसूत्र में महावीर के मुनि संघ के निम्न तो गणों का उल्लेख मिलता है -- (१) गोदासगण, (२) उत्तरबलिस्सहगण (३) उद्देहगण, (४) चारणगण, (५) उद्दकाइयगण ( ६ ) विस्तवाइयगण, (७) कामधिकगण, (८) मानवगण और ( ९ ) कोटिकरण' ।
कल्पसूत्र स्थविरावली में इन गणों का उल्लेख ही नहीं है वरन ये गण आगे चलकर शाखाओं एवं कुलों आदि में किस प्रकार विभक्त हुए, यह भी उल्लिखित है । कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य यशोभद्र के शिष्य आर्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए, उनमें से आर्य गोदास से गोदासगण निकला । उस गोदासगण की चार शाखाएं हुईं१) ताम्रलिप्तिका (१) कोटिवर्षका (३) पोण्ड्रवर्द्धनिका और (४) दासी स्वबेंटिका । आर्य यशोभद्र के दूसरे शिष्य सम्भूतिविजय के बारह शिष्य हुए, उनमें से आयं स्थूलभद्र के दो शिष्य हुए-- (१) आर्य महागिरि और ( २ ) आर्य सुहस्ति । आर्य महागिरि के स्थविर उत्तरवलिस्सह आदि आठ शिष्य हुए. इनमें स्थविर उत्तरब लिस्सह से उसरबलिस्सहगण निकला। इस उत्तरबलिस्सह् गण की भी चार
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१. समवायांगसुत्र - सम्पा० मुनि मधुकर प्रकार श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर प्रथम संस्करण सन् १९८१ सूत्र ९/२५ ।
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२. कल्पसूत्र, अनु० आर्या सज्जन श्री जी म० प्रा० श्री जैन माहित्य समिति, कलकत्ता पत्र ३३४-३८५ ।