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गच्छाया रपणणय
नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में मिलने वाले उपरोक्त वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तब, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-- ये सात नाम तथा कालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति--ये दो नाम, अर्थात वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। किन्तु उपरोक्त वर्गोकरण में गच्छायारपइण्णय गच्छाचार-प्रकीर्णक) का कहीं भी उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहाँ अंगबाह्य चौदह ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवकालिकसूत्र, दक्षाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प, जीतकल्प और निशीथ सूत्र आदि ग्रन्यों के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है।
गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तंदुलबैचारिक, मरणसमाप्ति, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी और सबसे अन्त में गच्छाचार का उल्लेख हुआ है। यहां यह ज्ञातव्य है कि विधिमार्गप्रपा में 'दीपसागरप्रज्ञप्ति' और 'संग्रहणी' को भिन्न-भिन्न प्रकीर्णक बतलाया गया है, जबकि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का नामोल्लेख द्वीपसागरप्रज्ञप्ति संग्रहणी गाथा (दीवसागरपण्णत्ति संगहणी गाहाओ) रूप में मिलता है। हमारी दृष्टि में विधिमार्गप्रपा में सम्पादक की असावधानी से यह १. (क) नन्दीसूत्र सम्गा मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
याचर; ई० सन् १९८२, पृष्ठ १६१-१६२ । (ख) पाक्षिकमूत्र प्रका देवचन्द्र लालमाई जन पुस्तकोद्धार, पृष्ठ ७६ । २. देवभन्थयं -तंदवालिय-
मसमाहि-महापावडाण-आउरपच्चक्खाणरांधारय-चंदाविज्झय-च 3 सरण-वीस्थय-गणिविना-दीवसागरपण्णत्तिसंगहणी-गन्छामारं = इच्माइपइण्णगाणि इशिकस्केण निविएण वच्चंति ।
-विधिमार्गप्रपा, सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ ५७-५८