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भूमिका मलती हुई है। वस्तुतः 'द्वीपसागरप्रज्ञप्ति' और 'संग्रहणी' ये दो भिन्न प्रकीर्णक नहीं होकर एक ही प्रकीर्णक हैं।
विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गई है उसमें गच्छाचार के पश्चात् महानिशीथ के अध्ययन का उल्लेख है' । विधिमार्गप्रपा में गच्छाचार का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे १४वीं शती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थडुरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांगसूत्र में "चोरासीई पइण्णग सहस्साई" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजर होणकोही शोर संकेत किया गया है । आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है, किन्तु वर्तमान में ४५ आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं। ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित हैं
(१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान, (४) भक्तपरिज्ञा, (५) तन्दुल वैचारिक, (६) संस्तारक, (७) गच्छानार, (4) गणिविद्या, (९) देवेन्द्रस्तव और (१०) मरणसमाधि'।
इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। कुछ नन्थों में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक
१. विधिमार्गप्रया, पृष्ठ ५८ । २. समवायांगसूत्र-राम्पा मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकायान समिति
व्यावर; प्रथम संस्करण १९८२, ८४ यां समवाय, पृष्ठ १४३ । ३. (क) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनामक इतिहास, ले० डॉ०
जगदीश चन्द जैन, पृष्ठ १९७ । (ख) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, ल० देवेन्द्रमुनि शास्त्री;
पृष्ठ ३८८। (ग) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, ले० मुनि नाराज,
पुष्ठ ४८६ ।