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________________ गह चार-प्रकीर्णक ३३ (१३२) जो साली दर्शन में अतिचार लगाती हो, चारित्र भंग करती हो, मिथ्यात्व को बढ़ाती हो तथा जो दोनो पक्षों अर्थात् अपनी एवं साधु वर्ग की आचार-मर्यादा का उल्लघन करती हो, वास्तव में वह साध्वी नहीं है । (१३३॥ हे गौतम ! साध्वियाँ संसार वृद्धि का कारण बन सकती हैं, इसलिए साध्वियों से धर्मोपदेश को छोड़कर अन्य बात नहीं करनी चाहिए। (१३४) जो साहिद एक-एक माजी ता पारो पारण की मात्र एक ग्रास ही ग्रहण करती हों, किन्तु यदि वे गृहस्थों की भाषा द्वारा अर्थात् सावध वचनों से कलह कराती हों तो उनकी तपस्या निरर्थक हो जाती है। (१३५-१३७ ग्रन्थ समाप्त ) (१३५-१३६) महानिशीथ, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र और इसी तरह के अन्य ग्रन्थों से साधु-साध्वियों के लिए यह 'गच्छाचार' (प्रकीर्णक) नामक ग्रन्थ समुद्धृत किया गया है। अतः साधु.. साध्वियों उत्तम श्रुत के सार रूप इस अति उत्तम गच्छाचार (प्रकीर्णक) को अस्वाध्याय काल छोड़कर पढ़ें। (१३३) अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले साधु साध्वियां इस 'गच्छाचार प्रकीर्णक' को सुनकर अथवा पढ़कर इसमें जैसा कहा गया है, वैसा ही करें। [गच्छाचार प्रकीर्णक समाप्त
SR No.090171
Book TitleAgam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year
Total Pages68
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Ethics
File Size1 MB
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