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________________ गच्छाचार प्रकीर्णक (२६) वे ही आचार्य भव्य प्राणियों के लिए चल के समान अर्थात् मार्गदर्शक कहे जा सकते हैं जो जिन उपदिष्ट अनुष्ठान (विधि निषध) को यथार्थ रूप से बतलाते हैं। (२७, जो आचार्य जिनमत को सम्यक् प्रकार से प्रसारित करते हैं, वे तीर्थकर के समान आदरणीय हैं । किन्तु जो आचार्य जिन वचन का उल्लंघन करते हैं, वे सत्पुरुष नहीं अपितु कायरपुरुष हैं। (२४) तीन प्रकार के आचार्य जिनमार्ग को नष्ट करते हैं-(१) स्वतः भ्रष्ट आचरण करनेवाले आचार्य, (२)भ्रष्ट आचरण करनेवालों की उपेक्षा करने वाले आचार्य तथा (३) उन्मार्गगामी आचार्य । (२९) उन्मार्ग में स्थित तथा सन्मार्ग का नाश करने वाले आचार्य की जो शिष्य सेवा करता है, हे गौतम ! निश्चय ही वह शिष्य आत्मा को संसार (समुद्र) में गिराता है । (३०) उन्मार्ग में स्थित एक व्यक्ति भी भव्य जीव समूह को उसी प्रकार ले डूबता है जिस प्रकार अयोग्य तारक का अनुसरण करते हुए कई मनुष्य डूब जाते हैं। (३१) हे गौतम ! सन्मार्ग का नाश करने वाले तथा उन्मार्ग पर प्रस्थित आचार्य का संसार परिभ्रमण निश्चय ही अनन्त होता है। (३२) अत्यन्त शुद्ध मुनिधर्म का कथन करने वाला अपनी आत्मा को उसी पक्ष में अर्थात् शुद्ध मुनिधर्म में स्थापित कर लेता है, किन्तु इससे भिन्न आस्माएँ गृहस्थ धर्म से भी भ्रष्ट हो जाती हैं। (३३-३४) यदि तुम जिन-भगवान् के कथनानुसार सम्यक् आचरण नहीं कर सकते तो भी कम से कम जिन-भगवान् ने जैसा कथन किया है वसा कथम तो करो, क्योंकि आचरण से शिथिल होते हुए भी जो शुद्ध आचार मार्ग अर्थात् मूल एवं उतरगुणों का प्रशंसक होता है। वह अपने कर्मों का क्षय कर सुलभबोधि होता है।
SR No.090171
Book TitleAgam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year
Total Pages68
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Ethics
File Size1 MB
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