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________________ गच्छाचार-प्रकीर्णक (९९) कारणवश या अकारण ही किसी भी तरह से कषाय उदित होने पर जहाँ उनके उदय को रोक दिया जाता हो और उसके लिये क्षमायाचना की जाती हो, वही गच्छ वस्तुतः गच्छ है । (१००) जिस गच्छ में शील, तप, दान और भावना रूप चार प्रकार की धर्म साधना में आने वाले विनो। अन्तरायो ) के भय से भयभीत बहुत से गीतार्थ मुनि हों, हे गौतम ! उसी गच्छ को गच्छ कहा जाता है । (१०१) है गौतम ! जहाँ मुनि पाँच प्रकार के वध-स्थानों अर्थात् ऊखल, चक्की, चूल्हा, पनघट आदि में से किसी एक का भी सेवन करते हों तो उस गच्छ का त्रिविध रूप से अर्थात् मन, वचन और काया से त्यागकर अन्य (सद्गुणी) गच्छ में चले जाना चाहिए। (१०२) जहाँ मुनि श्वेत वस्त्र धारण करके भी हिंसक प्रवृत्ति (भारम्भ समारम्भ) में लगे रहते हों, उस गच्छ में नहीं रहना चाहिए किन्तु जहाँ मुनि उज्ज्वल चारित्रिक गुणों से सम्पन्न हों, उसी गच्छ में रहना चाहिए। (१०३) जहाँ साधु क्रय-विक्रय आदि क्रियाएं करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, हे गुणों के सागर गौतम ! उस गच्छ का विष की तरह दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। (१०४) हे गौतम ! आरम्भ समारम्भ में प्रसक्त, जिन-वचन के विपरीत कार्य करने वाले तथा काम-भोगों में गृद्ध साधुओं को त्यागकर सदाचारी साधुओं के मध्य में ही रहना चाहिए। (१०५) इसलिये हे गौतम ! सन्मार्ग में प्रस्थित गच्छ का सम्यक प्रकार से निरीक्षण कर उसमें पक्ष, मास अथवा जीवनपर्यन्त रहना चाहिए । (१०६) जहाँ छोटा, वृद्ध अपवा नवदीक्षित साधु (शैक्ष्य) उपाश्रय का रक्षक बना हुआ हो अथवा जहाँ जवान साध अकेला रहता हो, उस गच्छ की मर्यादा का क्या कहें ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन है।
SR No.090171
Book TitleAgam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year
Total Pages68
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Ethics
File Size1 MB
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