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गच्छाचार-प्रकीर्णक ११६) हे गुणो के सागर गोतम ! यदि साध्वी प्रमुखा भी रात्रि के
समय वृद्धों तथा युवाओं को धर्मकथा कहती है तो वह साध्वी
गच्छ की मर्यादा के विपरीत आचरण करने वाली है। (११७) जहाँ साध्वियों में परस्पर कलह नहीं होता हो, गृहस्यों जैसी
भाषा नहीं बोली जाती हो, उसी गच्छ को श्रेष्ठ गच्छ
कहते हैं। (११८-१२२) स्वच्छन्दाचारी साध्वियां जहाँ और जैसे लगे हुए
अतिचारों की देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक अथवा सांवत्सरिक आलोचना नहीं करती हैं, वे अपनी साध्वी प्रमुखा की आशा में नहीं रहती हैं, वशीकरण विद्या एवं निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं, बीमार एवं नवदीक्षित साध्वियों की सेवा नहीं करती हैं, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण इत्यादि करने योग्य कार्य नहीं करती हैं और जो नहीं करने योग्य कार्य हैं उन्हें वे करती हैं, प्रत्येक क्रिया यतनापूर्वक नहीं करती हैं, अतिथि साध्वियों से स्नेह नहीं रखती हैं, रंगीन वस्त्र पहनती हैं, विचित्र प्रकार के रजोहरण रखती हैं, अपनी गति तथा हावभाव इस प्रकार प्रकट करती हैं जिससे बद्धों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाते हों तो फिर युवाओं का तो कहना ही क्या ? अर्थात् जो पुरुषों के मन में विकार उत्पन्न करती हों, अपने मुंह, हाथ-पाँव तथा कांखों को बार बार धोती हों, नानाप्रकार से राग-रागिनियों में रस लेती हों, अपना मन बहलाने के लिए छोटे बच्चों को भोजन कराती हों, ऐसा गच्छ
निन्दनीय है। (१२३) जहाँ वृद्धा साध्वी फिर युवा साध्वी, फिर वृद्धा साध्वी और
उसके पश्चात् फिर युबा साध्वी इस क्रम से साध्वियाँ सोती हों, हे गौतम ! वह गच्छ ही श्रेष्ठ गच्छ है और ऐसा
गच्छ सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्रका आधार होता है। (१९४) जो साध्वियाँ कंठ आदि अंगों को धोती हों, (गृहस्थों के लिए)
मोतियों की माला पिरोती हों, गृहस्थों को वस्त्र देती हों तथा गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में चिन्तित रहती हों, हे गौतम ! वास्तव में वे साध्वियों नहीं हैं ।