Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 63
________________ गच्छाचार-प्रकीर्णक (१२५) जहाँ घोड़े-गधे आदि पशु रहते हों अथवा जहां वे मल-मूत्र का विसर्जन करते हों तथा जिस उपाश्रय के समीप वेश्या के संसर्ग के आकांक्षी पुरुषों का आवागमन होता हो, वहां रहने वाली साध्वी वास्तव में साध्वी नहीं है । (१२६, जो साध्विर्या षट्जीवनिकाय की हिंसा के प्रति उत्सुक रहती हों, धर्मकथा के स्थान पर विकथा कहती हों, गृहस्थों को आदेशित करती हों, गृहस्थों के पलंग, शय्यादि का उपभोग करती हों, उनसे अति परिचय रखती हों, हे गौतम ! वास्तव में वे साध्वियों नहीं हैं। (१२७-१२८) अपनी शिष्याओं तथा प्रतिच्छिकाओं अर्थात् अध्ययन आदि के लिए उसके सान्निध्य में रहने वाली अन्य साध्वियों की शिष्याओं के प्रति समभाव रखने वाली, प्रेरणा देने में आलस्य नहीं करने वाली, गणिणी के गुणों से सम्पन्न, सत्पुरुषों का अनुसरण करने वाली, कारण उपस्थित होने पर कठोर दण्ड देने वाली, स्वाध्याय और ध्यान से युक्त रहने वाली, नवदीक्षिताओं और अन्य साध्वियों को आश्रय देने वाली तथा उनके लिए वस्त्र-पात्र आदि संयमोंपकरणों का संग्रह करने में कुशल साध्वी गणिणी (साध्वी प्रमुखा) बनने योग्य है। (१२९) जहाँ साध्वियां साधु के साथ वाद-विवाद करती हों तथा अत्यन्त आवेश में आकर बकवास करती हों, है गौतम ! उस गच्छ से क्या लाभ ? अर्थात् उस गच्छ में रहने से कोई लाभ नहीं है। (१३०) जहाँ कारण उत्पन्न होने पर भी साध्वियां साध्वी प्रमुखा (गणिणी) के पीछे रहकर ही गीतार्थ साधु से मृदु शब्दों के द्वारा बोलती हों, हे गौतम ! वास्तव में वहीं गच्छ है । (१३१) जहाँ साध्वियां यह मेरी माता है, यह मेरी पुत्री है, यह मेरी पुत्रवधू है अथवा मैं इसकी बहिन हूँ, मैं इसकी माता हूँ- ऐसा वचन-व्यवहार नहीं करती हों, वास्तव में वही गच्छ है ।

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