Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 55
________________ गच्छाचार-प्रकीर्णक (९०) जहाँ साधु कारण उपस्थित होने पर भी दूसरों के स्वर्ण-रजत आदि का क्षण भर के लिए भी हाथ से स्पर्श नहीं करते हों, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । {९१) जहाँ कारण उपस्थित होने पर भी साध्वियों के द्वारा लाए हुए पात्र आदि विविश्व उपकरणों का साधुओं के द्वारा उपभोग किया जाता हो, हे गोतम ! वह कैसा गच्छ है ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन है। (१२) जहाँ सानियों के द्वारा लाई हुई शारीरिक बल एवं बुद्धि को बढ़ाने वाली, पुष्टिकर एवं अति दुर्लभ औषधियों का सेवन किया जाता हो तो उस गच्छ में क्या मर्यादा है ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन है। (९३) जहाँ अकेला साधु अकेली स्त्री या विशेष रूप से अकेली साध्वी के साथ बैठता हो, हे गौतम ! उस गच्छ को मर्यादाहीन कहना चाहिए। (९४) दृढ़ चारित्र वाला, अनासक्त, निराभिमानी आदि विविध गुणों वाला अकेला साधु भी यदि अकेली स्त्री या साध्वी को पढ़ाता है तो यह अनाचार है, ऐसा गच्छ वस्तुतः गच्छ नहीं है । (९५) जहाँ बादल के समान गर्जन करने वाली, अश्व के समान हिनः हिनाने वाली, विद्युत के समान दुर्ग्राह्य और कपटपूर्ण हृदय वाली साध्वी पर अंकुश नहीं रखा जाता हो, वह गच्छ गच्छ नहीं, अपितु स्त्री-राज्य है (९६) जहाँ भोजन के समय साधुओं की मण्डली में आर्यिका अपने कदम रखती हो, हे गौतम ! वस्तुतः वह गच्छ नहीं, अपितु स्त्री राज्य है। (९७) जहां दूसरों के कषायों के निमित्त से मुनि-गण के कषाय भाव उसी प्रकार जागृत नहीं होते हैं, जैसे कि अच्छी प्रकार से बैठा हुआ पंगु उठने की इच्छा नहीं करता है, वास्तव में वहीं गच्छ है। (९८ जहाँ धर्म साधना में विघ्न पड़ने के भय से अथवा संभार परि भ्रमण के भय से साधु दूसरे साधुओं के कषायों को जागृत नहीं करते हैं, वह गछ ही वास्तव में गच्छ है ।

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