Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 51
________________ गच्छाचार-प्रकीर्णक १९ (७१) केवल वचन से भी जो चारित्र से ज्युत हो गया हो, फिर भले हो वह अनेक लबिध (विशिष्ट अलौकिक शक्ति) सम्पन्न ही क्यों न हो, ऐसे साधु को भी जहाँ गुरू के द्वारा विधिपूर्वक प्रायश्चित्त दिया जाता हो, वह छ ही वास्तव में गच्छ है।। (७२-७४) जिस गच्छ के साधु संचित, औद्देशिक, छीने हुए, दूषित और अशुद्ध मिश्रित आहार को स्पर्श करने से भी भयभीत होते हों तथा आहार-विहार में उपयोगवान हों, मृदु हों, विनीत हों, हास-परिहास नहीं करने वाले हों, लडाई नहीं करने वाले हों, अनुचित कार्य नहीं करने वाले हों तथा भिक्षा योग्य क्षेत्र में ही विचरण करने वाले हों और विविध प्रकार के अभिग्रह एवं दुष्कर प्रायश्चित्त करने वाले हों, ऐसे साधुओं को देखकर देवेन्द्र भी जहाँ आश्चर्यचकित रह जाते हों, वास्तव में यही गच्छ है । (७१) मृत्यु के उपस्थित होने पर भी जहाँ पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायुकाधिक, वनस्पतिकायिक तथा अनेक प्रकार के त्रसकायिक जीवों को पोड़ा नहीं पहुँचाई जाती हो, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है। (७६) जो साधु खजूर के पत्तों अथवा मुंज (घास-विशेष) के तिनकों से बनी हुई झाड़ से उपाश्रय की प्रमार्जना करता है, हे गौतम! यह अच्छी तरह से जान लो कि उस साधु का जीवों के प्रति दया-भाव नहीं है। (७७-७८) ग्रीष्मादि ऋतु में प्राण बाहर निकल रहे हों अर्थात् मृत्यु समीप हो तो भी जहाँ मुनि बूंद मात्र भी सचित्त जल ग्रहण नहीं करते हों तथा अपवाद मार्ग में भी सदैव भागम विहित प्रासुक जल ही ग्रहण करते हों, हे गौतम ! उस गच्छ को ही वास्तव में गच्छ कहते हैं। (७९) शूल, विशूचिका तथा अन्य कोई दुःसाध्य रोग उत्पन्न हो जाने पर भी जहाँ साधु अग्निकाय का आरम्भ नहीं करते हों, वह गच्छ ही वास्तव में गच्छ है । जैन परम्परा में मार्ग दो प्रकार के कहे गये हैं- (१) उत्सर्ग मार्ग और (२) अपनाद मार्ग । प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वत्र 'बीयपएण' का अर्थ द्वितीय पद अर्थात् द्वितीय मार्ग (अपवाद मार्ग) ही ब्रहण किया गया है ।

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