Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 29
________________ गच्छावारपडण्णायं (१) उक्किटुसीहरियं बहुपरियम्मो य गुरुयभारो य । जो विहर इ सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ।। सूत्रपाहुड, गाथा २) अर्थात् जो मुनि उत्कृष्ट चारिमा र मालन न हो. का तपश्चर्या कर रहा हो तथा आचार्य पद पर आसीन हो फिर भी यदि वह स्वच्छंद विचरण कर रहा हो तो वह पापी मिथ्यादृष्टि है, मुनि नहीं। (२) जे बावीसपरीसह सहत्ति सत्तीसरहिं संजुत्ता । ते होंति बंदणीया कम्मस्वयणिज्जरा साहू ।। (सूत्रपाहुड, माथा १२) अर्थात् जो मुनि क्षुधा आदि बाईस प्रकार के परिषदों को सहन करने वाला हों, कर्म क्षय रूप निर्जरा करने वाला हों, वे ही नमस्कार करने योग्य है। (३) गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया । पावारंभविमुक्का पन्वज्जा एरिसा भणिया । (बोधपाहुड, गाथा ४५) अर्थात् सर्वप्रकार के परिग्रहों से जिनको मोह नहीं हों, बाईस प्रकार के परिषहों तथा कषायों को जो जीतने वाले हों तथा सर्वप्रकार के आरम्भ-समारम्भ से जो विरत रहते हों, उन मुनि की दीक्षा ही उत्तम है। (४) धणधण्णवत्थदाणं हिरण्गसयणासणाइ छत्ताई। कुदाणविरहरहिया पठ्वज्जा एरिसा भणिया ।। बोधपाहुइ, गाथा ४६) अर्थात् जो मुनि धन-धान्य, सोना-चाँदी, वस्त्र-आसन आदि से रहा हो, उही दीक्षा ही उता है अर्थात वे ही वास्तव में मुनि हैं ।

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