Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 28
________________ মুমিকা स्त्री का स्पर्श करता हो, उस गच्छ को मूल गुणों से भ्रष्ट जाने । गाथा ८९-९० में उस गच्छ को मर्यादाहीन कहा गया है, जिसके साधु-साध्वी सोना-चाँदी, धन-धान्य, कासा-ताम्बा आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेत वस्त्रों को त्यागकर रंगीन वस्त्र धारण करते हों। गाथा ९१ में तो यहां तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, सास्त्रियों द्वारा लाये गये सयमोपकरण का भी उपभोग करते हैं, वह गच्छ मर्यादाहीन है। इसी प्रकार गाथा ९३-९४ में अकेले साधु का अकेली साध्वी या अकेली स्त्री के साथ बैठना अथवा पढ़ाना मर्यादा विपरीत माना गया है। ग्रन्थ में शिथिलाचार का विरोध करते हुए यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधू क्रय-विक्रय आदि क्रियाएँ करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, उस मच्छ का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए । गाथा ११८-१२२ में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि देवसिक, रात्रिक आदि आलोचना करने वाली, साध्वी प्रमुखा की आज्ञा में नहीं रहने वाली, बीमार साध्वियों सीमा नहीं कर पाली, सा, प्रतिजमण, प्रतिलेखन आदि नहीं करने वाली साध्वियों का गच्छ निन्दनीय है। गच्छाचार-प्रकीर्णक में उल्लिखित शिथिलाचार के ऐसे विवेचन से यह फलित होता है कि गच्छाचार उस काल की रचना है जब मुनि आचार में शिथिलता का प्रवेश हो चुका था और उसका खुलकर विरोध किया जाने लगा। जैन आचार के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि विक्रम की लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी से मुनियों के आचार में शिथिलता आनी प्रारम्भ हो चुकी थी। जैन धर्म में एक ओर जहाँ तन्त्र-मन्त्र और वाममार्ग के प्रभाव के कारण शिथिलाचारिता का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर उसी काल में वनवासी परंपरा के स्थान पर जनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में चंत्यवासी परम्परा का विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पांचवींछठी शताब्दी में जंन मुनिसंघ पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी बन गया और उस पर हिन्दू परम्परा के मठवासी महन्तो की जीवन शैली का प्रभाव आ गया। शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य बुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इस प्रकार देखा जा सकता है

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