Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 35
________________ गच्छाचार प्रकीर्णक (१. मंगल और अभिधेय) (१) त्रिदशेन्द्र* (देव-पति) जिसे नमस्कार करते हों, उन महाभाग महावीर को नमस्कार करके (में) श्रत रूपी समुद्र में से गच्छाचार का किश्चित् वर्णन करूंगा। २२. उन्मार्गमामी गच्छ में रहने से हानि) (२) हे गौतम ! कुछ प्राणी ऐसे हैं जो उन्मार्गगामी गच्छ में स्थिर रहकर भव परम्परा में परिभ्रमण करते हैं । (३-६ सन्मागंगामी गच्छ में रहने से लाभ) (३.५) हे गौतम! आधा प्रहर, प्रहर, दिन, पक्ष, मास, वर्ष अथवा इससे भी अधिक समय तक सन्मार्ग में प्रतिष्ठित गच्छ में रहने से यह लाभ होता है कि यदि (किसी को) आलस्य मा जाए, अहंकार आ जाए, उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिन्न हो जाए तो वह अन्य महाभाग्यवान् साधुओं को देखकर तप आदि सभी में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है । तब लज्जा, शंका आदि का अतिक्रमण कर उसका पुरुषार्थ प्रबल हो जाता है। (६) हे गौतम ! जिस समय जीव में आत्मबल का संचार होता है उस समय वह जन्मजन्मान्तर के पापों को एक महत्तंभर में धो डालता है। (७-४० आचार्य स्वरूप वर्णन अधिकार) (७) इसलिए है गौतम ! सन्मार्ग पर चल रहे गच्छ को सम्यक प्रकार से देखकर संयत मुनि जीवन पर्यन्त उस में रहे । * जैन परम्परा में वायत्रिदा देवताओं का एक भेद है और इनका अधिपति त्रिदशेन्द्र कहलाता है।

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