Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 39
________________ गच्छाचार प्रकीर्णन (१७) जिह्वा के द्वारा मीठे-मीठे वचन बोलते हुए भी जो आचार्य शिष्यों को हित-शिक्षा नहीं देते हों, वे शिष्यों के हित साधक नहीं हैं। इसके विपरीत दण्डे से पीटते हुए भी जो आचार्य शिष्यों के हित-साधक हों, वे कल्याणकर्ता हैं । (१०) प्रमाद के वशीभूत हो यदि कभी गुरु समाचारी विराधक हो जाए तो ऐसे समय में जो शिष्य गुरु को सत्रेत नहीं करता, वह शिष्य भी (अपने गुरु का) शत्रु है । (१९) हे मुनिवर ! यदि आप जैसे महापुरुष भी प्रमाद के वशीभूत हो जायेंगे तो इस संसार में कौन दूसरा हमारा सहारा होगा? (२०) जिनवाणी का सार-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना में है। जो अपनी आत्मा को तथा गच्छ को इन तीनों में स्थापित मरने की प्रेरणा देता है, वस्ताद में नहीं गन्न " आचार्य है। (२१) चारित्र की रक्षा के लिए भोजन, उपधि तथा शय्या आदि के उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों को शुद्ध करता हुआ जो शोभित होता है, वहीं चारित्रवान है। (२२) गोपनीय बात को प्रकट नहीं करने में जो प्रामाणिक हैं और सभी कार्यों में जो समदर्शी होते हैं, वे आचार्य आबालवृद्ध समन्वित गच्छ की चक्ष के समान रक्षा करते हैं । (२३) जो सुखाकांक्षी अज्ञानी (मुनि) विचरण में शिथिलता वर्तता है, वह संयम बल से रहित केवल वेशधारी है। (२४) कुल', ग्राम, नगर और राज्य को त्यागकर भी जो मुनि उनके प्रति ममत्व करता है, वह संयम बल से रहित केवल वेशधारी है। (२१) जो आचार्य शास्त्रोक्त मर्यादा पूर्वक शिष्य को प्रेरणा देते हैं तथा आगम वचन के अर्थ को समझाते हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं, पुण्यवान हैं, मित्रवत हैं और मोक्ष दिलाने वाले हैं। मुनि जीवन के लिए आवश्यक उपकरण उपनि कहे जाते हैं ।

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