________________
गम्छाचार प्रकोणक
(४३) हे गौतम ! जो साधु होकर भी परमार्थ के अध्ययन से रहित हैं,
दुर्गति मार्ग में डालने वाले ऐसे साधुओं का साथ छोड़ देना
चाहिए। (४४-४५) चाहे गीतार्थ के बचन घातक हलाहल विष के सदृश प्रतीत
होते हों तो भी उन्हें मिना किसी विमाने तकाल स्वीकार कर लेना चाहिए। वस्तुतः वे वचन विष नहीं, अपितु अमृत (रसायन) तुल्य होते हैं। निर्विघ्न वचन एक तो किसी को मारते नहीं और दूसरा यदि कोई उनसे मर भी जाये तो उसका मरण अमरण के समान होता है अर्थात् वह मरकर भी अमर हो
जाता है। (४६-४७) चाहे अगीतार्थ के वचन अमृत तुल्य प्रतीत हो तो भी उन्हें
स्वीकार नहीं करना चाहिए। वस्तुत: वे वचन अमृत नहीं, अपितु हलाहल विष की तरह हैं। अगीतार्थ के वचन ग्रहण करने से जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म
मरण से रहित नहीं हो पाता। (४४) अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का मन, वचन एवं कर्म से
परित्याग करें। उन्हें मोक्ष मार्ग में चोर एवं लुटेरों की तरह
बाधक समझें । (४९) जलती हुई अग्नि को देखकर निस्संकोच उसमें प्रविष्ट होकर
अपने शरीर को भस्म कर देना अच्छा है, किन्तु दुराचारी की
संगति करना अच्छा नहीं है। (५०) गुरु के द्वारा समझाने पर भी राग-द्वेष और अहंकार के कारण
जहाँ शिष्यों को क्रोधाग्नि अधिक भड़क उठती हो, हे गौतम !
वह गच्छ वास्तव में गच्छ नहीं है । (५१) हे भाग्यवान ! गच्छ में रहकर ही अधिकाधिक निर्जरा की जा
सकती है क्योंकि उसमें गुरुजनों द्वारा सारण (स्मरण कराने), वारण (निषेध करने) तथा चोदण (प्रेरणा देने) से (जीवन में)
दोष की ओर प्रवृत्ति नहीं होती है। (५२) सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनय पूर्वक पालन
करता है तथा धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है। वह न तो अभिमान करता है न लोभ करता है । न गर्व करता है और न ही वह विवाद करता है।