Book Title: Agam 30 Prakirnak 07 Gacchachar Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 32
________________ भूमिका जत्य य अज्जालद्ध पडिगमाई वि विविमुवगरणं । परिमुज्जइ साहूहि तं मोघम ! केरिसं गच्छं ॥ (गच्छाचार, गाथा ९१ ) (४) वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गिग्गविससरिसा । अज्जाणु चरो साहू लहइ अकिति सु अचिरेण ॥ (संबोधप्रकरण, गाथा ५१ ) वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गि अग्गि-विससरिसी । अज्जाणुचरो साहू लes अकिति सु अचिरेण ॥ (गच्छाचार, गाथा ६३) (५) जत्थ हिरण्णसुवणं हत्थेण पराणगं पि नो छिप्पे । कारण समयं हि गोयमा ! गच्छं तयं भणिमो ॥ (संबोध प्रकरण, गाथा ५२ ) जत्थ हिरण्ण-सुवणं हृत्येण पराणगं पिनो छिप्पे । कारणसमपिपिहू निभिस खणल पि तं गच्छ ॥ (गच्छाचार, गाथा ९०) ३५ गच्छाचार प्रकीर्णक में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य हरिभद्रसूरि की तरह ही जैन मुनियों की स्वछन्दाचारी तथा शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध किया गया है। यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि आचार्य कुन्दकुन्द और हरिभद्रसूरि की आलोचनाओं से जैन मुनिसंघ में यथार्थ रूप से कोई सुधार आ गया था क्योंकि यदि यथार्थ रूप से कोई सुधार आया होता तो भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वी - ९ वीं शताब्दी में भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा न केवल जीवित थी, अपितु फलफूल रही थी। जिसके परिणाम स्वरूप निर्ग्रन्थ परम्परा में स्वच्छन्दाचारी एवं शिथिलाचारी प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी। जैसा कि हम पूर्व में ही यह प्रतिपादित

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