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भूमिका (५) पसुमहिलसंढसंग कुसीलसंग ण कुणइ निकहानी। सज्झायझाणजुत्ता पच ज्जा एरिसा भणिया ।।
(बोधपाहुड, गाथा ५७) अर्थात् जो मुनि पशु, स्त्री, नपुंसक तथा व्यभिचारी पुरुषों की संगति नहीं करते हों, अपितु स्वाध्याय और ध्यान में निरन्तर निमग्न रहते हों, उनकी दीक्षा ही उत्तम है अर्थात् वे ही वास्तव में मुनि हैं।
(६) कंदप्पाइय चट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धि । मायी लिंग बिवाई तिरिक्खजोणी ण सामणो॥
(लिंगपाहुड, गाथा १२) जो मुनि मुनिलिंग धारण करके भी भोजन आदि रसों में गद्ध रहता हो, उनके प्रति आसक्ति रखता हो, कामसेवन की कामना से अनेक प्रकार के छल-कपट करता हो, वह मायावी है, तिर्यञ्चयोनि अर्थात् पशुतुल्य है, मुनि नहीं।
(७) रामो करेदि णिच्वं महिलावगं परं च दूसेइ । दसणणाणविहीणो तिरिक्ख जोणी ण सो समणो ।।
(लिंगपाहुड, गाथा १७) अर्थात् जो मुनि मुनिलिंग धारण करके भी स्त्री समूह के प्रति राग करता हो, दर्शन और ज्ञान से रहित वह मुनि तिर्यञ्च योनि अर्थात् पशु समान है, मुनि नहीं।
यद्यपि भाचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध होने वाली ये गाथाएँ इसी रूप में गच्छाचार में नहीं मिलतीं किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि इन गाथाओं के द्वारा भी आचार्य कुन्दकुन्द ने मुनियों की स्वच्छंदाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का ही विरोध किया है।
श्वेताम्बर परम्परा में मुनियों की स्वच्छंदाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्रमुरि के ग्रन्थ संबोध