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भूमिका चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा साध्वी के उपलक्षण से किया गया हो वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है। जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग हम देखते हैं जहां मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है. किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है।
ग्रन्थ में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा सकायिक जीवों को किसी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचे, इस हेतु विशेष विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्वयं मरते हुए भी जिस गच्छ के साधु षटकायिक जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते हों, वास्तव में वही गच्छ है (७५-८१) ।
प्रस्तुत प्रन्थ में साधु के लिए स्त्री का तनिक भी स्पर्श करना दष्टि विष सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष की तरह त्याज्य माना गया है और यह कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु बालिका, वद्ध ही नहीं अपनी संसार पक्षीय पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं बहिन का स्पर्श मान भी नहीं करते हों, वहीं गच्छ वास्तविक गच्छ है। साधु के लिए ही नहीं गच्छ के आचार्य के लिए भी स्पष्ट कहा है कि आचार्य भी यदि स्त्री का स्पर्श करे तो उसे मुलगुणों से भ्रष्ट जानें (८२-८७) ।
ग्रन्थ के अनुसार जिस गच्छ के साधु सोना-चांदी, धन-धान्य आदि भौतिक पदार्थों तथा रंगीन वस्त्रों का परिभोग करते हों, वह गच्छ मर्यादाहीन है किन्तु जिस गच्छ के साधु कारण विशेष से भी ऐसी वस्तुओं का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वास्तव में वहीं गच्छ है (८९-९०)।
ग्रन्ध में साध्वियों द्वारा लाए गये वस्त्र, पात्र, औषधि आदि का सेवन करना साधु के लिए सर्वथा वर्जित माना गया है (९१-९६)।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यह निर्देश दिया गया है कि आरम्भ-समारम्भ एवं कामभोगों में आसक्त तथा शास्त्र विपरीत कार्य करने वाले साधुओं के गच्छ को विविध रूप से त्यागकर अन्य सद्गुणी गच्छ में चले जाना चाहिए और जीवन पर्यन्त ऐसे सद्गुणो गच्छ में रहना चाहिए (१०१-१०५)।