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भूमिका
फलित होता है कि गच्छाचार के प्रणेता के समक्ष महानिशीथसूत्र अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था। इस आधार पर गच्छाचार की रचना वीं शताब्दी के पश्चात् तथा १३वीं शताब्दी से पूर्व ही कभी हुई है ऐसा मानना चाहिए। हरिभद्रसरि द्वारा आगम ग्रन्थों के उल्लेख में कहीं भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं किये जाने से भी यही फलित होता है कि गच्छाचार की रचना हरिभद्रसूरि (८वीं शताब्दी के पश्चात् ही कगी हुई है।
हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि गच्छाचार में 'गच्छ' शब्द का मुनि संच हेतु जो प्रयोग हुआ है, वह प्रयोग भी ८वीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है। लगभग ८वीं शताब्दी से चन्द्रकुल, विद्याधर कुल, नागेन्द्र कुल और निवृत्तिकुल से नन्द्र गच्छ, विद्याधर गच्छ आदि 'गच्छ' नाम मे अभिहित होने लगे थे। इसमा तो निश्चित है कि गच्छों के अस्तित्व में आने के बाद ही गच्छाचार प्रकीर्णक की रचना हुई होगी। अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से मुनिसंघ के रूप में 'गच्छ' शब्द का प्रयोगावी दाही हे पर्व मनीं मिला। अतः गच्छाचार-प्रकीर्णक किसी भी स्थिति में ८वीं शताब्दी के पर्व की रचना नहीं है । पुनः गच्छाचार प्रकीर्णक में स्वच्छन्द और सुविधावादी गच्छों की स्पष्ट रूप से समालोचना की गई है। यह सुविदित है कि निर्ग्रन्थ संघ में स्वच्छन्द और मुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास चैत्यवास के प्रारंभ के साथ लगभग चौथी शताब्दी में हुआ जिसका विरोध सर्वप्रथम छठी शताब्दी में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ सूत्रपाहुइ, बोधपाहुड एवं लिंगपाहुड आदि में किया ।' श्वेताम्बर परम्परा में शिथिला चारी और स्वच्छन्दाचारी प्रवृत्तियों का विरोध लगभग ८वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थ संबोधप्रकरण में किया है ।' संबोधप्रकरण और गच्छाचार प्रकीर्णक में अनेक गाथाएँ समान रूप से पाई जाती हैं इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन दोनों ग्रन्थों का रचनाकाल समसामयिक १. विस्तार हेतु ट है--- (क) सूत्रहाहुड, गाया ९-१५ ।
(ग्व) बोधपाइड, गाथा १५-२०, ४५-६० ।
(ग) लिंगपाहुड, गाथा १-२ ! २. संबोधप्रकरण, कुगुरु अध्याय, गाया ४०-५० ।