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गच्छामारपइपण
होना चाहिए । यद्यपि इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संबोधप्रकरण और गच्छाचार में समान रूप से उपलब्ध गाथाएँ गच्छाचार में संबोधप्रकरण से ली गई हैं। यदि हम यह मानते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गच्छाचार संबोध प्रकरण से पर. वर्ती है। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्रसूरि के पश्चात स्वच्छन्द और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का विरोध खरतरगच्छ के संस्थापक आचार्य बिरसूरि कार भी पाया गया, उस काल लगभग १०वीं शताब्दी का है। अतः यह भी संभव है कि गच्छाचार की रचना १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा ११वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में कभी हुई हो । पुनः यदि हम गच्छाचार के रचयिता आचार्य वीरभद्र को मानते हैं तो उनका काल ईस्वी सन् को १०वीं शताब्दी निश्चित होता है । ऐसी स्थिति में गच्छाचार का रचनाकाल भी ईस्वी सन् की १०वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिये, किन्तु वीरभद् गच्छाचार के रचयिता हैं, यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अत: गच्छाचार का रचनाकाल ८वीं शताब्दी से १०वीं शताब्दी के मध्य ही कभी माना जा सकता है। विषयवस्तु--
गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल १३७ गाथायें हैं। ये सभी गाथायें गच्छ, आचार्य एवं साधू-साध्वियों के आचार का विवेचन प्ररतत करती हैं । इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है
सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में त्रिदशेन्द्र (देवपति) भी जिसे नमन करते हों, ऐसे महाभाग महावीर को नमस्कार करके गच्छाचार का वर्णन करना प्रारम्भ करता है (१)।
पन्थ में सन्मार्गगामी गच्छ में रहने को ही श्रेष्ठ मानते हुए कहा गया है कि जन्मार्गगामी गच्छ में रहने के कारण कई जीव संसारचक्र में घूम रहे हैं (२)।
सन्मागंगामी गच्छ में रहने का लाभ यह है कि यदि किसी को आलस्य अथवा अहंकार आ जाए, उसका उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिस्स हो जाए तो भी वह गच्छ के अन्य साधूओं को देखकर तप आदि क्रियाओं में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसकी आत्मा में वीरत्व का संचार हो जाता है (३-६)।