Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 471
________________ ४६२ अम्बूद्वीपाशतिसूत्रे द्वादशनक्षत्राणि भवन्ति तथापि इदमभिनिनक्षत्रं शेपैकादेशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि स्थितं सत् चार चरति तस्मात् कारणात् सर्वाभ्यन्तरचारीति कथितम् । तथा-'मृलो सत्यवाहिर चारं चरई' मूलनामकं नक्षत्रं सर्वबाह्य चार चरति यद्यपि पश्चदशमण्डलाद् बहिचारीणि मृगशिरः प्रभृतीनि पडूनक्षत्राणि पूर्वापाढोत्तराषाढयो श्चतुर्णा तारकाणां मध्ये द्वे द्वे तारके कथितानि, तथापि एतन्मूलनक्षत्र मपरवहिश्चारि नक्षत्रमपेक्ष्य लवण समुदिशि व्यवस्थितं सत् चार चरति, अस्मादेव कारणात् मूलनक्षत्रं सातो बहिश्चरतीति कथितम् अतो न कोऽपि दोष इति । 'भरणीहिदिल्लं' भरणी नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चररि, तथा-'साई सय उवरिल्लं चार घरइ' स्वातीनक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति, अर्थाद् दशाधिकशतयो जनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्रविभागश्चतु यौजनप्रमाणकः तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः क्रमेणाधस्तनौ के इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सव्वन्भंतरे चारं चरई' २८ नक्षत्रों में से जो अभिजित् नक्षत्र है वह सर्व नक्षत्र मंडल के भीतर होकर गति करता है यद्यपि सर्वाभ्यन्तर मंडल चारी अभिजितू आदि १२ नक्षत्र हैं तथापि यह अभिजित् नक्षत्र शेष ११ नक्षत्रों की अपेक्षा मेरु दिशामें स्थित होकर गति करता है इस कारण इसे सर्वाभ्यन्तर चारी कहा गया है। तथा-'मूलोसव्वबाहिरं चारं चरइ' मूल नक्षत्र सर्व नक्षत्र मंडल से बाहिर होकर गति करता है यद्यपि पन्द्रह मंडल से बहिश्चारी मृगशिरा आदि छह नक्षत्र और पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा इन दो नक्षत्रों के चार तारकों के बीच दो दो तारे कहे गये हैं तब भी यह मूल नक्षत्र अपर बहिवारी नक्षत्र की अपेक्षा लवण समुद्र की दिशा में व्यवस्थित होकर गति करता है इसी कारण मूल नक्षत्र सर्वतो बाहिचारी है ऐसा कहा गया है। इसलिये कोई भी दोष नहीं है। 'भरणी हिडिल्लं' भरणी नक्षत्र सर्वनक्षत्र मंडल से अधश्चारी होकर गति करता है तथा-'साई सव्व उवरिल्लं चारं चरइ' स्वाति नक्षत्र सर्वनक्षत्र मंडल से ऊपर उत्तरमा प्रभु ४३ छे–'गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरं चारं चरइ' २८ नक्षत्र माथा रे અભિજિત્ નક્ષત્ર છે તે સર્વ નક્ષત્ર મંડળની અંદર થઈને ગતિ કરે છે. જો કે સર્વાભ્યન્તર મંડળ ચારી અભિજીત આદિ ૧૨ નક્ષત્ર છે તે પણ આ અભિજિત નક્ષત્ર બાકીનાં ૧૧ નક્ષત્રની અપેક્ષા મેરૂ દિશામાં સ્થિત થઈને ગતિ કરે છે આથી જ તેને સભ્યન્તર यारी हेपामा माव्यु छे तथा 'मूलो सव्वबाहिरं चारं चारइ' भू नक्षत्र सपनक्षत्र भर. ળની બહાર થઈને ગતિ કરે છે. જો કે પંદર મંડળથી બહિશ્ચારી મૃગશિર આદિ છે નક્ષત્ર અને પૂર્વાષાઢા અને ઉત્તરાષાઢા એ બે નક્ષત્રના ચાર તારકેની વચ્ચે બબ્બે તારા કહેવામાં આવ્યા છે તે પણ આ મૂલ નક્ષત્ર ઉપર બહિરી નક્ષત્રની અપેક્ષા લવણ સમુદ્રની દિશામાં વ્યવસ્થિત થઈને ગતિ કરે છે. આથી જ મૂલ નક્ષત્ર સર્વ તે બહિશારી छ भ डेवामा माथ्यु छ साथी ४ ५ दोष नथी 'भरणी हिदिल्लं' भरणी नक्षत्र नक्षत्र मथी अश्वारी ने गति ४२ छे तथा 'साई सब्व उबरिल्लं चारं चरई' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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