Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 551
________________ अम्बूद्धीपप्राप्ति अकायिकतया जळता सम्पापन्नजीवरूपेणेत्यर्थः, 'तेउकाइयत्ताए' तेजस्कायिकतया 'वाउकाइयत्ताए' वायुकायिकतया 'वणस्सइकाइयत्ताए' वनस्पतिकायिकतया “उववण्णपुव्वा' उत्पश्नपूर्वाः पूर्वसमये उत्पन्नाः किम्, पृथिव्यादिकायिकतयेति प्रश्नः, भगवानाह-'हंत' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'असई अदुवा अणंत खुत्तो' असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः, हे गौतम ! यथैव प्रश्नसूत्रं तयैव सर्व प्रत्युच्चारणीयम् पृथिवीकायिकतया, अकायिकतया, तेजस्कायिकतया, वायुकायिकतया, वनस्पतिकायिकतया, उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्य कर्मणश्चानादित्वात्, नतु पुनः सर्वे प्राणादयो जीवविशेषा युगपदुत्पन्नाः सकलजीवासमस्तप्राण-दीन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीव, समस्त जीव-पश्चेन्द्रिय जीव, समस्त भूत-वृक्ष, और समस्त सत्व-पृथिवी, अपू, तेज एवं वायुकायिक ये सब पृथिवीकायिक रूप से, तैजस्कायिकरूप से 'आरकाइयत्ताए' अकाधिकरूपसे 'तेऊकाइयत्ताए' तैजसकायिक रूप से, 'वउकाइयत्ताए' वायुकायिकरूप से, एवं 'घणस्सइकाइयत्ताए वनस्पतिकायिकरूप से 'उववण पुचा' पूर्व में उत्पन्न होचुके हैं क्या ? यह प्रश्न सांव्यावहारिक जीव राशिविषयक ही है क्यों कि अनादिनिगोद से निर्गत जीव ही प्राण जीव आदिरूप विषय पर्याय को प्राप्त करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो' हां, गौतम ! ऐसा ही है ये समस्त प्राणादिक पूर्व में पृथिवी कायिक रूप से, अप्कायिकरूप से, तेजस्कायिकरूप से वायुकायिकरूप से एवं वनस्पतिकायिकरूप से कई चार अथवा अनन्तबार उत्पन्न होचुके हैं। क्यों कि संसार और कर्म अनादि हैं। ये सब जीव जो इस रूप से पूर्व में उत्पन्न हो चुके कहे गये हैं सो कालक्रम से ही पूर्व में उत्पन्न हो चुके कहे गये हैं युगपत् उत्पन्न हो चुके नहीं कहे गये हैं। यौरिन्द्रीय , समस्त ०१-५येन्द्रिय, समस्त भून-वृक्ष, भने समस्त Ar4પૃથ્વિ, પાણી, અગ્નિ અને વાયુકાયિક આ બધાં પૃધ્ધિકાધિકરૂપથી, તેજસકાયિકરૂપથી 'आउकाइयत्ताए' अ५॥यि४३५थी 'तेऊकाइयत्ताए' ते४४५४३५थी 'बाउकाइयत्ताए' वायु४यि४३५थी भने 'वणस्सइकाइयत्ताए' वनस्पतिथि४३५थी 'उववण्णपुव्वा' पूर्व उत्पन्न २७ ચૂક્યાં છે શું? આ પ્રશ્ન સાંવ્યાવહારિક જીવ રાશિ વિષયક જ છે કારણ કે અનાદિ નિગોદથી નિર્ગત જીવ જ પ્રાણજીવ આદિરૂપ વિશેષ પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छ-'हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो' ७, गौतम ! से छे. આ સમસ્ત પ્રાણદિક પૂર્વે પૃથ્વિકાયિક રૂપે અને વનસ્પતિકાયિક રૂપે, અપૂકાયિકરૂપે, તૈજસ્કાયિકરૂપે, વાયુકાયિકરૂપે અને વનસ્પતિકાયિકરૂપે કેટલીવાર અથવા અનન્તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે કારણ કે સંસાર અને કર્મ અનાદિ છે આ બધાં છવ જે આ રૂપે પૂર્વે ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયાનું કહેવામાં આવ્યું છે તે તે કાળક્રમથી જ પૂર્વે ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યા કહેવામાં આવ્યા છે યુગપત્ ઉત્પન્ન થયા હોવાનું કહેવામાં આવ્યું નથી કારણ કે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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