Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
View full book text
________________
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि-चतुः संख्यकानि देवसहस्राणि "गयरूवधारीणं देवाणं' गजरूपधारिणां देवानाम् 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहति त्ति' दाक्षिणात्याम्-दक्षिण दिगस्थितां बाहां परिवहन्तीति ॥ . सम्प्रति तृतीय बाहा वाहकान् दर्शयितुमाइ-"चंदविमाणस्स गं' इत्यादि, 'चंदविमाणस्सणं पचत्थिमेणे' चन्द्रविमानस्य खलु पश्चिमेन पश्चिमस्यां दिशि इत्यर्थः 'सेयाणं' श्वेता. नाम्-शुक्लवर्णवताम्, 'मुभगाणं' सुभगानां--प्रीति समुत्पादकानाम् 'सुप्पमाण' सुप्रभाणाम्, विलक्षणतेजोवताम् 'चलचवल रुकुासालीणं' चलवपल ककुदशालिनाम्, तत्र चलचपलमइतस्ततो दोलायमानत्वेनास्थिरत्वादति चालं ककुदम्-अंशकूटंशतेन शालिनाम्-शोभमानानाम् 'घणणिचियसुबद्ध लक्खणुण्णय ईसियाणयवसभोवाणं' घननिचित सुबद्धलक्षणोनतेषदानतवृषभौष्ठानाम्, तत्र घनवत्-अयोधनवत् निचितानां नि तशरीराणाम्, अतएव मुबमन को भी आनन्द पहुंचाने वाला होता है, ऐसे शब्द से ये 'अंबर दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देव साहस्सीओ' चार हजार गजरूप धारी देवता आकाश को और चारों दिशाओं को शोभित करते हैं और 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहंति त्ति' दक्षिण दिगवस्थित वाहा को खेंचते हैं। _ 'चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं' चन्द्रविमान की पश्चिम दिशा में रखें हुए वृषभरूपधारी देव पश्चिमदिग्वर्ती बाहा को खेचते हैं, इस प्रकार से समझ कर इस पाठ को इस प्रकार से लगाना चाहिये ये वृषभरूप देव 'सेयाण' शुक्लवर्णवाले होते हैं 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्पादक होते हैं 'सुप्पभाण' विलक्षण तेज. वाले होते हैं 'चल चवल ककुहसालीणं' ककुदकांधोर-वाले होते हैं यह इनकी ककुद-चाल चपल-इधर उधर दोलायमान होने से अति चञ्चल होती रहती है इस ककुद से ये वृषभरूपधारी देव बडे ही अधिक सुहावने लगते हैं ! 'घणणिचिय सुबद्धलक्खणुण्णयईसियाणयवसभोवाणं' इनके मुखों का जो ओष्ठ होता है
भानन्द पाउनार डाय छ, मा। हाथी तमा 'अंवरदिसाओ य सोभयंता चत्तारिदेव REી ચાર હજાર ગજરૂધારી દેવતા આકાશને તેમજ ચારે દિશાઓને શોભિત ४२ छ भने 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहति त्ति' दक्षिय शिवस्थित पाने ये छ.
चंद्रविमाणस्स णं पच्चस्थिमेणं सुभगाणा'यन्द्रविमाननी पश्चिमहिमा २७॥ वृषभ પધારી દેવ પશ્ચિમદિશ્વર્તાવવાને ખેંચે છે એ રીતે સમજીને આ પાઠને આ પ્રમાણે any s नये. या वृष:३५४२ 'सेयाणं' शुस वाणा डाय छे. 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्पा६४ डाय छ, 'सुप्पभाणं' विक्षय तेस्पा डाय छे. 'चलचबलककुहसालीण' - કાંધા-વાળા હોય છે. એમની આ કંધે ચલચપલ-આમતેમ ડોલાયમાન થતી હોવાથી અતિ ચંચલ થતી લાગે છે. આ કકુદથી આ વૃષભરૂપધારી દેવ ઘણું જ અધિક सोराभव सा छे 'घणणिचिय सुबद्धलक्खगुण्णयईसियाणयवसभोवाणं' मेमना भुपनारे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org