Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आर्य रक्षित के बाद भी उत्तरोत्तर श्रुत-ज्ञान का ह्रास होता रहा और एक समय ऐसा पाया जब पूर्वो का विशेषज्ञ कोई नहीं रहा। यह स्थिति वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद हुई और दिगम्बर परम्परा के अनुसार बीरनिर्वाण सं.६८३ के बाद हुई। नन्दीसुत्र की चणि में उल्लेख है कि द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण ग्रहण, गुणन और अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र नष्ट हो गया अर्थात कंठस्थ करने वाले श्रमणों के काल-कवलित होते जाने और दुष्काल के कारण श्रमण वर्ग के तितर-बितर हो जाने से नियमित सूत्रबद्धता नहीं रही। अतएव बारह वर्ष के दुष्काल के बाद स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में साधुसंघ मथुरा में एकत्र हुया और जिसको जो याद था, उसका परिष्कार करके कालिक श्रत को व्यवस्थित किया। आर्य स्कंदिल का युगप्रधानत्वकाल वीर नि. संवत् 827 से 840 तक माना जाता है / अतएव यह वाचना इसी बीच हुई होगी। इसी माथुरी वाचना के काल में वलभी में नागार्जुन सूरि ने श्रमणसंघ को एकत्रित कर आममों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया तथा विस्मृत स्थलों को पूर्वापर सम्बन्ध के अनुमार ठीक करके वाचना दी गई। उपयुक्त वाचनाओं के पश्चात करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद पूनः वलभी नगर में देवधिमणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्रमणसंघ इकदा हा और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय व्यवस्थित किये गये जो ग्रन्थ मौजद थे उनको लिखवाकर सुरक्षित करने का निश्चय किया तथा दोनों वाचनाओं का परस्पर समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सका अन्तर को दूर कर एकरूपता लाई गई। जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें पाठान्तर के रूप में संकलित किया गया। यह कार्य वीर नि. सं. 980 में अथवा 993 में हुआ / वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं, उनका अधिकांश भाग इसी समय स्थिर हया, ऐसा कहा जा सकता है। फिर भी कई प्रागम उक्त लेखन के बाद भी नष्ट हुए हैं ऐसा नन्दीसूत्र में दी गई सूची से स्पष्ट है। प्रागमों का रचनाकाल भगवान महावीर का उपदेश विक्रम पूर्व 500 वर्ष में शुरू हश्रा था, अतएव उपलब्ध किसी भी प्रागम की रचना का उससे पहले होना संभव नहीं है और अंतिम वाचना के आधार पर उनका लेखन विक्रम सं. 510 (मतान्तर से 523) में हुआ था / अतः यह समयमर्यादा आगमों का काल है, ऐसा मानना पड़ेगा। इस काल-मर्यादा को ध्यान में रखकर जब हम आगमों की भाषा का विचार करते हैं तो प्राचारांग के प्रथम और द्वितीय श्रतस्कन्ध भाव और भाषा में भिन्न हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय से ही नहीं अपितु समस्त जैनवाङमय में सबसे प्राचीन है। इसमें कुछ नया नहीं मिला हो, परिवर्तन परिवर्धन नहीं हुआ हो, यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु नया सबसे कम मिला है। वह भगवान् के साक्षात उपदेश के अत्यन्त निकट है। इस स्थिति में उसे प्रथम वाचना की संकलना कहा जाना सम्भव है। अंग प्रागमों में प्रश्नव्याकरण सूत्र उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में अब हम प्रश्नव्याकरण सूत्र की पर्यालोचना कर लें। प्रश्नव्याकरण सूत्र अंगप्रविष्ट श्रुत माना गया है। यह दसवां अंग है। समवायांग, नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्र में प्रश्नव्याकरण के लिये 'पण्हावागरणाई' इस प्रकार से बहुवचन का प्रयोग किया है, जिसका संस्कृत रूप 'प्रश्नव्याकरणानि' होता है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण सूत्र के उपसंहार में पण्हावागरण इस प्रकार एकवचन का ही प्रयोग किया है। तत्त्वार्थभाष्य में भी प्रश्नव्याकरणम इस प्रकार से एक वचनान्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org