Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ यद्यपि आज शास्त्रों के लिये 'पागम' शब्द जैन परम्परा में व्यापक रूप में प्रचलित हो गया है, लेकिन प्राचीन काल में वह 'श्रुत' या 'सम्यक श्रुत' के नाम से प्रसिद्ध था। इसी से 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हुआ न कि 'आगमकेवली' या 'सुत्रकेबली'। इसी प्रकार स्थविरों की गणना में भी 'श्रुतस्थविर' शब्द को स्थान मिला है जो श्रुत शब्द के प्रयोग की प्राचीनता सिद्ध कर रहा है। शास्त्रों के लिये आगम शब्द कब से प्रचलित हया और उसके प्रस्तावक कौन थे? इसके सूत्र हमें प्राचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में देखने को मिलते हैं। उन्होंने वहां श्रुत के पर्यायों का संग्रह कर दिया है। जो इस प्रकार हैं-श्रुत, प्राप्तवचन, पागम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन / इनमें आगम शब्द बोलने में सरल रहा तथा दूसरे शब्द अन्य-अन्य कथनों के लिये रूढ़ हो गये तो जैन शास्त्र को पागम शब्द से कहा जाना शुरु हो गया हो, यह सम्भव है, जिसकी परम्परा आज चालू है / जैन आगमों का वर्गीकरण समवायांग आदि आगमों से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने जो देशना दी थी उसकी संकलना द्वादशांगों में हुई थी। लेकिन उसके बाद आगमों की संख्या में वद्धि होने लगी और इसका कारण यह है कि गणधरों के अतिरिक्त प्रत्येकबुद्ध महापुरुषों ने जो उपदेश दिया उसे भी प्रत्येकबुद्ध के केवली होने से आगमों में समाविष्ट कर लिया गया। इसी प्रकार द्वादशांगी के आधार पर मंदबुद्धि शिष्यों के हितार्थ श्रतकेवली प्राचार्यों ने जो नथ बनाये उनका भी समावेश आगमों में कर लिया गया। इसका उदाहरण दशवकालिक सूत्र है। अन्त में सम्पूर्ण दस पूर्व के ज्ञाता द्वारा ग्रथित ग्रन्थ भी आगम में समाविष्ट इसलिये किये गये कि वे भी प्रागम के आशय को ही पुष्ट करने वाले थे। उनका पागम से विरोध इसलिये भी नहीं हो सकता था कि वे आगम के प्राशय का ही बोध कराते थे और उनके रचयिता सम्यग्दृष्टि थे, जिसकी सूचना निम्नलिखित गाथा से मिलती है सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च / सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदस पुव्व कथिदं च // ' इसके बाद जब दशपूर्वी भी नहीं रहे तब भी पागमों की संख्या में वृद्धि होना नहीं रुका / श्वेताम्बर परम्परा में प्रागम रूप से मान्य कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो उस काल के बाद भी आगम रूप में सम्मिलित होते रहे। इसके दो कारण संभाव्य हैं। एक तो उनका वैराग्यभावना की वृद्धि में विशेष उपयोग होना माना गया हो और दूसरा उनके कर्ता प्राचार्यों की उस काल में विशेष प्रतिष्ठा रही हो। इस प्रकार से जैनागमों की संख्या में वृद्धि होने लगी तब उनका वर्गीकरण करना आवश्यक हो गया। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह, जो द्वादश अंग के रूप में था, स्वयं एक वर्ग बन जाए और उसका प्रत्य से पार्थक्य भी दृष्टिगत हो, अतएव प्रागमों का प्रथम वर्गीकरण अंग और अंगबाह्य के आधार पर हया / इसीलिये हम देखते हैं कि अनुयोगद्वार सूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, ऐसे श्रुत के दो भेद किये गये हैं। नन्दी सूत्र से भी ऐसे ही दो भेद होने की सूचना मिलती है। प्राचार्य उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र-भाष्य (1-20) से भो यही फलित होता है कि उनके समय तक अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य यही दो विभाग प्रचलित थे। अंगप्रविष्ट प्रागमों के रूप में वर्गीकृत बारह अंगों की संख्या निश्चित थी, अत: उसमें तो किसी प्रकार को वद्धि नहीं हई। लेकिन अंगबाह्य आगमों की संख्या में दिनोंदिन वृद्धि होती जा रही थी। अतएव उनका 1 मूलाचार 5/80 [ 16 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org