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समवायाङ्ग
सूत्र॥
॥४७॥
अने असंभोगर्नु कारण थाय छे, ते आ प्रमाणे-अक्षनिषद्या (स्थापनाचार्य) विना (सूत्रार्थनी) व्याख्या करनार अने सांभळनारने प्रायश्चित्त लागे छे. तथा निपद्या (आसन) उपर बेसीने (शिष्य) सूत्रार्थने (गुरु पासे) पूछे, तथा जो आलोचनाने आलोवे तो ते ज प्रमाणे तेने प्रायश्चित्त लागे छ (१). तथा' कहाए य पवंधणे-वादादिक पांच प्रकारनी कथानु
जे करवू ते कथाप्रबंधन कहेवाय छे. तेमां संभोग अने असंभोग थइ शके छे. (पांच प्रकार आ प्रमाणे-) तेमां ला कोइ मतनो स्वीकार करीने पांच अवयवचाळा अथवा त्रण अवयववाळा ( अनुमान प्रमाणना) वाक्यवडे जे ते
मतने सिद्ध करवो, ते छळजाति रहित सत्यार्थर्नु अन्वेषण करनार वाद कहेवाय छे, तेज वाद जो छळजातिवडे पराभवना स्थानरूप होय तो ते जल्प कहेवाय छे, जे ठेकाणे वाद करनारा वेमांथी एकना पक्षने ग्रहण करनार हाजर होय अने बीजाना पक्षने ग्रहण करनार कोइ न होय तो ते मात्र दूपण आपवामां ज प्रवृत्त होवाथी वितंडा कहेवाय छे, तथा चोथी प्रकीर्णकथा छे, ते उत्सर्ग मार्गनी कथा अथवा तो द्रव्यास्तिक नयनी कथा कहेवाय छे, तथा पांचमी निश्चय कथा छे, ते अपवाद मार्गनी कथा अथवा पयार्यास्तिक नयनी कथा कहेवाय छे. तेमां पहेली त्रण कथाओ साध्वी विना बीजानी साथे करवा लायक छे, परंतु जो साध्वी साथे करे तो तेने प्रायश्चित्त लागे छे. (ते त्रण वार प्रायश्चित्त ले त्यां सुधी संभोगने लायक छ अने) चोथी वार प्रायश्चित्त ले तो पण ते विसंभोगने लायक छ (असांभोगिक छे), आ प्रमाणे वे गाथानो संक्षेपथी अर्थ कह्यो. तेनो विस्तरार्थ तो निशीथ सूत्रना पांचमा उद्देशकना भाष्यमाथी जाणी लेवो (२)
तथा 'दुवालसवत्ते किड़कम्मे-द्वादशावर्त कृतिकर्म-वंदनक कहेलं छे, आ द्वादशावर्तनो ज अनुवाद करता