Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Author(s): Jethalal Haribhai
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 653
________________ यसत्तिनंदगधरा पवरुज्जलसुकंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोइयाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकंठलइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सवोउयसुरभिकुसुमरचितपलंब सोमंतकंतविकसंतविचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविरइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई सारयनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्घोसदुंदुभिसरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलगपीयगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो होत्था, तं जहा - तिविट्ठू जाव कहे अले जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥ ५३ ॥ मूलार्थ:: -आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमां भरतक्षेत्रमां आ अवसर्पिणीमां नव दशार मंडळ ( वासुदेव अने वळदेवना समुदाय ) थयेला छे ते ( ना गुणो ) आ प्रमाणे - उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष, प्रधानपुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, कांतिवाळा, कांत, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, सुखशीळ, सुखे सेववा लायक, सर्व जनना नेत्रने प्रिय, ओघ वळवाळा, अति वळवाळा, महा वळवाळा, अनिहत ( नहीं हणायेला ), पराजय नहीं पामेला, शत्रुने मर्दन करनारा, • हजारो शत्रुना मानने मथन करनारा, अनुक्रोश (दया) सहित, मत्सर रहित, चपळता रहित, अप्रचंड ( क्रोध रहित ),

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