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श्री
समवायाङ्ग
सूत्र ॥
चो अंग
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काळना प्रमाणथी पांच गाउ विगेरे प्रमाणना क्षेत्रवाळो साधर्मिकनो अवग्रह होय ते ज साधर्मिकोनी अनुज्ञा लइने तेनोज भोगवटो करवो एटले त्यां ज रहेवुं, अर्थात् साधर्मिकना क्षेत्रने विषे के वसतिने विषे तेओनी अनुज्ञा लइने ज रहेतुं ते चोथी भावना ४, तथा जे सामान्य भक्तादिक आणेलं होय ते आचार्यादिकनी अनुज्ञा लहने वापर - आहार करवो ते पांचमी भावना ५ । तथा स्त्री विगेरेना संबंधवाळा आसन शयनादिकनुं वर्जवं ते चोथा व्रतनी भावनाओ छे मां जे प्रणीत आहार कह्यो छे ते अति स्नेह ( घी - तेल )वाळो जाणवो । तथा श्रोत्र इंद्रियना रागनो त्याग करवो विगेरे पांच भावनाओं पांचमा महाव्रतनी कही छे. तेनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-जे जीव जे पदार्थने विषे आसक्त थाय ते जीवने तेनो परिग्रह लागे छे. तेथी करीने शब्दादिकने विषे राग करनार जीवे ते शब्दादिकनो परिग्रह करेलो कहेवाय छे तेथी परिग्रहविरतिनी विराधना यह कहेवाय छे अन्यथा एटले शब्दादिकमां राग कर्यो न होय तो ते व्रतनी आराधना थइ कहेवाय छे। आ सर्व भावनाओ वाचनांतरमां आवश्यकसूत्रने अनुसारे देखाय छे एटले के आवश्यकसूत्रमां आ "भावनाओ वाचनांतर तरीके कही छे (१) ।
' तथा ' मिच्छदिट्ठीत्यादि ' - मिध्यादृष्टि जीव ज तिर्यग्गति विगेरे कर्मप्रकृतिने बांधे छे पण सम्यग्दृष्टि जीव बांधतो नथी; केम के ते कर्मप्रकृतिओ मिध्यात्वना ज आश्रयवाळी छे, तेथी मिथ्यादृष्टिनुं ग्रहण कर्युं छे. (ते पण) विकलेंद्रिय एटले द्वींद्रिय, त्रींद्रिय के चतुरिंद्रियमांनो कोइ एक बांधे छे. 'णं' शब्द वाक्यनी शोभा माटे लख्यो छे. ( मिथ्यादृष्टि विकलेंद्रिय छतां पण ) पर्याप्तक होय तो ते बीजी कर्मप्रकृतिओने पण बांधे छे तेथी अहीं अपर्याप्तकनुं ग्रहण कयुं छे;
समवाय २५ ॥
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