Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Author(s): Jethalal Haribhai
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 624
________________ विरहकाळ विचार । मू-निरयगई णं भत्ते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं समवायाङ्ग । एक समयं उक्कोसेणं बारस मुहत्ते, एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई । सिद्धिगई णं भंते ! सूत्र ।। केवइयं कालं विरहिया सिज्झणयाए पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं छम्माले, I चोथु अंग एवं सिज्झिवजा उबद्दणा । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विर॥२८॥ हिया उववाएणं? एवं उववायदंडओ भाणियबो उवट्टणादंडओ य । नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसहिं पगरीत ? गोयमा ! सिय १ सिय २ सिय ३ सिय ४ सिय ५ सिय ६ सिय ७ सिय ८ अढहिं, नो चेव णं नवहिं । एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणिय त्ति ॥ सूत्रम्-१५४ ॥ मूलार्थ:--हे भगवान ! नरकगतिने विषे नारकीने उपजवानो केटलो विरहकाळ कह्यो छे ? हे गौतम ! जघन्यथी| एक समय अने उत्कर्षथी बार मुहूर्त, ए ज प्रमाणे तिर्यंचगति, मनुष्यगति अने देवगतिनो विरहकाळ जाणवो. । हे भगवान ! सिद्धिगतिने विषे सिद्धने उपजवानो केटलो विरहकाळ कह्यो छे ? हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कर्पथी छ मासनो विरह कह्यो छे । ए ज प्रमाणे सिद्धिगतिने वर्जीने (चारे गतिनो) उद्वर्तना (च्यवन) काळनो विरह पण कहेवो. SE ॥२८४॥

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