Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 15
________________ उपचारथी छे, पण पांचमा गुणठाणाथी मांडीने ए नय इच्छे है। ॥ १३ ॥ अने चोथे गुणठाणे पण शुश्रूषादिक क्रिया ते उचित छे जेम कोइने सोनानां घरेणां न मलतां होय तेने रुपानां मले ते पण रुडां मनाय ।। १४ ॥ अपुनर्बधकस्यापि या क्रिया शमसंयुता ॥ चित्रादर्शनभेदेन धर्मविनक्षयाय सा ॥१५॥ अशुद्धा पि हिशुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् ॥ तानं रसानुवेधेन स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥१६॥ __अर्थ–समभावे करीने सहित, दर्शन भेदे करीने विचित्र प्रकारर्नु अपुनर्बध जे चोथु गुणठाणुं तेहनी क्रिया पण धर्मना विघ्नने क्षय करनारी छे ॥ १५ ॥ तो पण भला आशयथकी अशुद्ध क्रिया करे ते पण शुद्ध कहेवाय. जेम त्रांबु जे छे तेने गाली तेमां रसानुवेध कर्याथी ( रसायन मेळववाथी ) सोनुं थइ जाय छे तेम ॥ १६॥ अतो मार्गप्रवेशाय व्रतं मिथ्यादृशामपि ॥ द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य ददते धीरबुद्धयः ॥१७॥ यो बुध्वा भवनैर्गुण्यं धीरः स्याद् व्रतपालने ॥ सयोग्यो भावभेदस्तु दुर्लक्ष्योनोपयुज्यते ॥ १८ ॥ अर्थ–ए ज कारण माटे धीरबुद्धिना धणी रत्नत्रयना मार्गने विषे प्रवेशवाने मिथ्यादृष्टिवालाने पण द्रव्य समकितनो आरोप करीने चारित्र आपे छे ॥ १७ ॥ जे प्राणी संसारर्नु निर्गुणपणुं जाणीने व्रत पालवाने विषे धीर थाय ते. प्राणी धर्मने योग्य जाणवो अने अंतरंगभावनो भेद तो दुःखे करीने समजाय छे, माटे ते उपयोगमां न आणको ॥ १८ ॥

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