Book Title: Adhyatma Navneet Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजन स्थापना (दोहा) शुद्धब्रह्म परमात्मा शब्दब्रह्म जिनवाणि। शुद्धातम साधकदशा नमों जोडि जगपाणि || ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरु समूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (जल) आशा की प्यास बुझाने को, अबतक मृगतृष्णा में भटका। जल समझ विषय-विष भोगों को, उनकी ममता मेंथा अटका।। लख सौम्य दृष्टि तेरी प्रभुवर, समता रस पीने आया हूँ। इस जल ने प्यास बुझाई ना, इस को लौटाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । (चंदन) क्रोधानल से जब जला हृदय, चंदन ने कोई न काम किया। तन को तोशान्त किया इसने, मन को न मगर आराम दिया ।। संसार ताप से तप्त हृदय, सन्ताप मिटाने आया हूँ। चरणों में चन्दन अर्पण कर, शीतलता पाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। (अक्षत) अभिमान किया अबतकजड़पर, अक्षयनिधिकोनापहिचाना। मैं जड़ का हूँ जड़ मेरा है यह, सोच बना था मस्ताना ।। क्षत में विश्वास किया अबतक, अक्षत को प्रभुवर ना जाना। अभिमान की आन मिटाने को, अक्षयनिधि तुम को पहिचाना।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। (पुष्प) दिन-रात वासना में रह कर, मेरे मन ने प्रभु सुख माना। पुरुषत्व गमाया पर प्रभुवर, उसके छल को न पहिचाना ।। श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजन माया ने डाला जाल प्रथम, कामुकता ने फिर बाँध लिया। उसका प्रमाण यह पुष्प-बाण लाकर के प्रभुवर भेंट किया।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । (नैवेद्य) पर पुद्गल का भक्षण करके, यह भूख मिटाना चाही थी। इस नागिन से बचने को प्रभु, हर चीज बना कर खाई थी।। मिष्टान्न अनेक बनाये थे, दिन-रात भखे न मिटी प्रभुवर। अब संयम भाव जगाने को, लाया हूँ ये सब थाली भर ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। (दीप) पहिले अज्ञान मिटाने को, दीपक था जग में उजियाला। उससे न हुआ कुछ तब युग ने, बिजली का बल्ब जला डाला।। प्रभुभेदज्ञान की आँखन थी, क्या कर सकती थी यह ज्वाला। यह ज्ञान है कि अज्ञान कहो, तुमके भी दीप दिखा डाला।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । (धूप) शुभ कर्म कमाऊँ सुख होगा, मैंने अबतक यह माना था। पाप कर्म को त्याग पुण्य को, चाह रहा अपनाना था ।। किन्तु समझ कर शत्रु कर्म को, आज जलाने आया हूँ। लेकर दशांग यह धूप, कर्म की धूम उड़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भोगों को अमृतफल जाना, विषयों में निश-दिन मस्त रहा। उनके संग्रह में हे प्रभुवर!, मैं व्यस्त त्रस्त अभ्यस्त रहा ।। शुद्धात्मप्रभा जो अनुपम फल, मैं उसे खोजने आया हूँ। प्रभु सरस सुवासित ये जड़ फल, मैं तुम्हें चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।Page Navigation
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