Book Title: Adhyatma Navneet Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ अध्यात्मनवनीत जिनेन्द्र वन्दना ५. श्री सुमतिनाथ वन्दना है सर्वदर्शी सुमति जिन! आनन्द के रस कंद हो । हो शक्तियों के संग्रहालय ज्ञान के घनपिण्ड हो ।। निर्लोभ हो निर्दोष हो निष्क्रोध हो निष्काम हो। हो परम-पावन पतित-पावन शौचमय सुखधाम हो ।। ६. श्री पद्मप्रभ वन्दना मानता आनन्द सब जग हास में परिहास में । पर आपने निर्मद किया परिहास को परिहास में ।। परिहास भी है परिग्रह जग को बताया आपने । हे पद्मप्रभ परमात्मा पावन किया जग आपने ।। ७. श्री सुपार्श्वनाथ वन्दना पारस सुपारस है वही पारस करे जो लोह को। वह आतमा ही है सुपारस जो स्वयं निर्मोह हो ।। रति-राग वर्जित आतमा ही लोक में आराध्य है। निज आतमा का ध्यान ही बस साधना है साध्य है।। ८. श्री चन्द्रप्रभ वन्दना रति-अरतिहर श्री चन्द्र जिन तुम ही अपूरव चन्द्र हो। निश्शेष हो निर्दोष हो निर्विघ्न हो निष्कंप हो ।। निकलंक हो अकलंक हो निष्ताप हो निष्पाप हो। यदि हैं अमावस अज्ञजन तो पूर्णमासी आप हो ।। ९. श्री सुविधिनाथ (पुष्पदंत) वन्दना विरहित विविध विधि सुविधि जिन निज आतमा में लीन हो। हो सर्वगुण सम्पन्न जिन सर्वज्ञ हो स्वाधीन हो ।। शिवमग बतावनहार हो शत इन्द्र करि अभिवन्द्य हो। दुख-शोकहर भ्रमरोगहर संतोषकर सानन्द हो ।। १०. श्री शीतलनाथ वन्दना आपका गुणगान जो जन करें नित अनुराग से। सब भय भयंकर स्वयं भयकरि भाग जावें भाग से ।। तुम हो स्वयंभू नाथ निर्भय जगत को निर्भय किया। हो स्वयं शीतल मलयगिरि से जगत को शीतल किया ।। ११. श्री श्रेयांसनाथ वन्दना नरतन विदारन मरन-मारन मलिनभाव विलोक के। दुर्गन्धमय मलमूत्रमय नरकादि थल अवलोक के।। जिनके न उपजे जुगुप्सा समभाव महल-मसान में। वे श्रेय श्रेयस्कर शिरी (श्री) श्रेयांस विचरें ध्यान में ।। १२. श्री वासुपूज्य वन्दना निज आतमा के भान बिन सुख मानकर रति-राग में। सारा जगत नित जल रहा है वासना की आग में ।। तुम वेद-विरहित वेदविद जिन वासना से दूर हो। वसुपूज्यसुत बस आप ही सानन्द से भरपूर हो ।। १३. श्री विमलनाथ वन्दना बस आतमा ही बस रहा जिनके विमल श्रद्धान में। निज आतमा बस एक ही नित रहे जिनके ध्यान में ।। सब द्रव्य-गुण-पर्याय जिनके नित्य झलकें ज्ञान में। वे वेद विरहित विमल जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। १४. श्री अनन्तनाथ वन्दना । तुम हो अनादि अनंत जिन तुम ही अखण्डानन्त हो। तुम वेद-विरहित वेद-विद शिव कामिनी के कन्त हो ।। तुम सन्त हो भगवन्त हो तुम भवजलधि के अन्त हो। तुम में अनन्तानन्त गुण तुम ही अनन्तानन्त हो ।।Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 112