Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha FaltanPage 22
________________ पच्चीस साल का अहवाल संशोधन पं. हिरालालजी शास्त्री द्वारा करा के उसका मुद्रण बाहुबली में (कोल्हापुर ) सन्मति मुद्रणालय में पं. माणकचंद्रजी न्यायतीर्थ के देखभाल में हुआ। यह कार्य २०१० में पूरा हुआ। श्रीमहाधवल के छपाई का कार्य श्री. पं. सुमेरचंद्रजी दिवाकर न्यायतीर्थ बी. ए. एलएल्. बी. के जिम्मेदारी में सीवनी में प्रारंभ होकर संवत २०२० में पूरा हुआ। माननीय पंडित महाशय ने धर्मबुद्धि से बिनापारिश्रमिक खूब कष्ट उठाकर कार्य संपन्न किया इसलिए फलटण में आचार्य शांतिसागरजी के उपस्थिति में समाज ने 'धर्मदिवाकर' पदवी प्रदान कर उनको संमानित किया । इस तरह इन धवलादि तीन सिद्धान्तग्रन्थ की छपाई तथा ताम्रपट को करीब दस साल लगे। महाराजश्री के सल्लेखना के पूर्व ही इन ग्रन्थों का ताम्रपट रूप से जीणोद्धार का कार्य पूर्ण हुआ। इसमें पूज्य श्रीको जैसा समाधान हुआ वैसा संस्था को भी कर्तव्यपूर्ति का आनंद हुआ। श्रीधवला के ताम्रपत्र तथा तीनों मुद्रित सिद्धान्त ग्रंथों की प्रतियां फलटण में श्री. चंद्रप्रभु मंदिर के ऊपर “आचार्य शांतिसागर श्रुतभांडार भवन" के बडे हॉल में रखे गये हैं। संस्था के तरफ से प्रकाशित अन्य जैन साहित्य भी वहां पर रक्खा है । तथा श्रीजयधवला और श्रीमहाधवला के ताम्रपत्र मात्र संघपति शेठ गेंदनमलजी बंबई के कालबादेवी दि. जैन मन्दिर में विराजमान हैं । इसमें भी आचार्यश्री की आज्ञा प्रमाण है। उसी समय ग्रंथ के सत्प्ररुपंणा में सूत्र नं. ९३ में “संजदासंजद" के जगह द्रव्यस्त्रीवाचक 'संजद' शब्द मूडबिद्री के ताडपत्र प्रति में प्रतिलिपि करनेवाले की भूल से लिखा है अतः वह नये ताम्रपट में से तथा मुद्रित प्रति में से निकालने का आदेश दिया और वह शिरोधार्य किया गया। इस ‘संजद' शब्द के कारण समाज में वाद तथा आंदोलन भी हुआ । फलस्वरूप मतभेद के कारण पं. खूबचंद्रजी ने कार्यभार का इस्तीफा दे दिया । तथा पं. पन्नालालजी सोनी को भी मतभेद के कारण संस्था से अलग होना पड़ा। इन दोनों महानुभावों ने सिद्धान्त ग्रंथों के संशोधन तथा मुद्रण शोधन की जिम्मेदारी उठाई थी। श्रीधवला का आधा काम पं. खूबचंदजी ने तथा धवला का शेष भाग और जयधवला १९६४ पृष्ठ तक का कार्यभार पं. पन्नालालजी ने अच्छी तरह संभाला। संस्था उनके इस सेवा के लिए साभार कृतज्ञता प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानती है। __ आचार्य महाराज प्रायः गृहस्थ के कल्याण के लिए जिनबिंब प्रतिष्ठा, चैत्यालय निर्माण, पूजादि पुण्यकार्य का अधिकतर उपदेश देते थे। जैनसमाज में धर्मश्रद्धा तो है, किन्तु वह दृढमूल बनने में स्थितिकरण में मुख्य साधन जिनागम का स्वाध्याय मननादिक ही है। बिना स्वाध्याय धर्मश्रद्धान दृढ नहीं होगा और स्वाध्याय के लिए आगमग्रंथों की सुलभता होनी चाहिए। इस अभिप्राय से ज्ञानदान के हेतु स्वाध्यायप्रसार के लिए एक अभिनव योजना वि. सं. २०१० में फलटण नगरी में प्रस्तुत की। भाद्रपद वदी ५ के दिन फलटण में श्री. १०८ चा. च. आ. शांतिसागर दि. जैन जीर्णोद्धारक संस्था प्रमाणित " श्री श्रुतभांडार तथा ग्रंथप्रकाशन समिति" नाम की संस्था आचार्य श्री के उपदेश और आदेश से स्थापित हुई। इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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