Book Title: Aatmanushasan Author(s): Bansidhar Shastri Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना: बुरे संस्कारोंवाले पुरुषोंके कानोंके समीप पहुंचकर उनके हृदयमें चुभते हैं उन्हें बुरे लगते हैं । " 1 न्यायनिष्णातताः यद्यपि इस ग्रंथ में प्रधानरूपसे यह विषय नहीं है परंतु कहीं कहीं पर तो भी एक दो वचन ऐसे दीख पडते हैं कि ग्रंथकारकी न्यायनिणातता अपूर्व थी ऐसा मानना पडता है। देखिये इसकेलिये श्लोक नंबर १७२ व १७३ वां । - ; एकमेकक्षणे सिद्धं धौन्योत्पादव्ययात्मकम् । अबाधितान्यतत्प्रत्ययान्यथानुपपत्तितः ॥ १७२ ॥ न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं, नाभावमप्रतिहत प्रतिभासरोधात् । ୬ - • तत्त्वं प्रतिक्षणभवचदतत्स्वभाव, - माद्यन्तहीनमखिलं च तथा यथैकम् ॥ १७३ ॥ इन दोनो श्लोकोंका अर्थ ग्रंथ में विस्तारसे लिखा है । इन दोनो श्लोकों में आनुमानिक न्यायपद्धतिसे अन्य ऐकान्तिक सिद्धान्तोंका निराकरण तथा स्वमतसमर्थन करके तत्त्वलक्षण इतना अच्छा लिखा है जितना कि स्वामी समन्तभद्र लिखते हैं। ठीक ऐसा ही निर्दोष व संक्षिप्त लेख समन्तभद्रस्वामीका रहता है । इसी प्रकार श्लोक नं. २१० व २११ को देखिये। उन श्लोकोंमें आत्माको शरीरसे ऐसी सरलताके साथ वास्तविक निराला सिद्ध करके दिखाया है कि देखते ही यह कहना पडता है कि कठिनसे कठिन विषय भी ग्रंथकारको अति सरलता के साथ समझाना आता था । व्याकरणज्ञान: व्याकरणज्ञान, भी ग्रंथकर्ताका वर्णनीय होना चाहिये । श्लोक २३० में ' बाबाध्यते ' यह यङन्त शब्द, एवं नं. विडालिका ' यह विशिष्ट समासका शब्द, इत्यादि व कठिनंतर शब्द देखने से यह बात अवश्य माननी २१४ में ' आखु शब्दशैली के निर्दोष पडती है ।Page Navigation
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